संजय ने हॉस्टल के बाहर निकलकर कालेज कैंपस की तरफ चलना शुरू किया. सिनेमा के पर्दों पर नजर आने वाले कालेज जरूर कहीं होते होंगे. लेकिन देश के 95 फीसदी कालेज वैसे नहीं हैं. आईआईएम, आईआईटी या फिर पांच सितारा निजी कालेजों की तादाद बढ़ी है, लेकिन आज भी अस्सी फीसदी यूथ ऐसे ही कालेजों में पढ़ रहा है. कैंपस में क्लासेज की कतारे हैं. कई का ताला नहीं खुला है, और बाकी दिन खुलने की उम्मीद भी नहीं है. कुछ क्लासेज में कुछ टीचर्स गिनती के स्टूडेंट्स को पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, और स्टूडेंट्स पढ़ने की. जितने स्टूडेंट क्लासेज में हैं, उनसे बीस गुना ज्यादा कैंपस में इधर-उधर हैं. कुछ ने कैंपस में खड़े पुराने पेड़ों की पनाह लेकर मंडली जमा रखी है. कुछ ने गलियारों ने मुकाम पाया है. कालेज आने वाली अधिकतर लड़कियां पढ़ाई की औपचारिकता पूरी करके वापस जा चुकी हैं, या जाने वाली हैं. जून का महीना कभी कालेजों में सन्नाटे का समय हुआ करता होगा, यहां सेशन लेट है इसलिए जुलाई एंड में एग्जाम हो जाएं तो गनीमत. यहां किसी को किसी ने जबरदस्ती इंजीनियर बनने के लिए नहीं भेजा. यहां कोई ऐसा डायरेक्टर भी नहीं, जो सबको जबरन इंजीनियर बना देने पर उतारू हो. ये कालेज उस पूरे इंडियन सिस्टम के चमत्कार का विस्तार हैं, जो असल में चल नहीं रहे हैं, लेकिन फिर भी चल रहे हैं. ये ऐसे ही चलते आए हैं. यहां स्टूडेंट आकर लीडर बनते हैं, दबंग बनते हैं, मनचले बनते हैं, आंदोलनकारी बनते हैं, कालेज के आस-पास उगी दुकानों का ग्राहक बनते हैं, शाम को शराब के ठेके के रेगुलर पैसेंजर बनते हैं, कालेज में टीचर्स के बीच चल रही पॉलिटिक्स का मोहरा बनते हैं, बॉलीवुड की बोर फिल्मों की अर्थव्यवस्था बनते हैं.... बस स्टूडेंट नहीं बनते. कुछ गुदड़ी के लाल बन पाते हैं, तो उनके फोटो अखबार में छप जाते हैं. साथ में कालेज का गौरवशाली इतिहास छपता है. लेकिन ये गौरवशाली अतीत भी चंद चेहरों का मोहताज है. संजय ने पिछले तीन साल में इसे ऐसा ही पाया है. यहां दस-दस साल से जमे उसके साथी भी हमेशा सा ऐसा ही देखते आए हैं. और चाय की दुकानों पर मिल जाने वाले कुछ बुजुर्ग हो चुके एक्स स्टूडेंट्स भी इसके बारे में बहुत कुछ ऐसा ही बताते हैं.
प्रिंसिपल आफिस के बाहर से गुजरते हुए संजय को भीड़ नजर आई. यहां अमूमन भीड़ होती है. कभी एडमिशन फार्म की भीड़, कभी एग्जाम फार्म की. कभी रोल नंबर की, कभी मार्कशीट की. और बाकी दिन स्टूडेंट हितों की लड़ाई की. इन हितों के लिए कभी छात्र संघ जरूरी होता है, तो कभी कालेज द्वारा तैयार की गई ब्लैक लिस्ट को समाप्त करना. चूंकि भीड़ में लड़कियां हैं, तो बात कुछ और है शायद. संजय ने जाकर एक परिचित से नजर आने वाले चेहरे से पूछा, क्या हुआ. उसने जवाब दिया, एमए इकनोमिक्स के फाइनल इयर में अस्सी पर्सेंट स्टूडेंट्स फेल हो गए थे. तब प्रिंसिपल, वीसी का घेराव किया था, तो दोनों ने वादा किया था कि कॉपी दोबारा चेक कराएंगे. अब सबको कहा जा रहा है कि फेल स्टूडेंट के तौर पर एग्जाम दो. प्रिंसिपल आफिस का चैनल गेट बंद था. तकरीबन एक दर्जन नौजवान अपनी ताकत उस चैनल गेट पर आजमा रहे थे. उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जिसका एमए इकनोमिक्स से कोई लेना-देना हो. लेकिन ये सब छात्र हितों के पहरेदार हैं. इन्होंने इस बात को अपने जीवन में उतार लिया है कि छात्र की न तो कोई कक्षा होती है, न सब्जेक्ट. छात्र बस छात्र होता है. इन्हें इस बात का भी यकीन हो चुका है कि पूरा एजुकेशन सिस्टम छात्रों के खिलाफ है. एग्जाम एक साजिश है. इनके कुछ तर्कों पर गौर कीजिए.... पढ़ाते हैं नहीं, एग्जाम क्यों लेते हैं. (बात में दम है न)
एक साथ इतने सारे स्टूडेंट्स फेल हुए हैं, ये जानबूझकर किया गया है (मानो कॉपी चेक करने वाले को इनके दोबारा एग्जाम में बैठने से कमीशन मिलता हो)
प्रिंसिपल मनमानी कर रहा है. (और आप उसका चैनल तोड़ देने पर उतारू हैं, वो क्या है)
तभी चैनल गेट पर एक चेहरा नजर आता है. ये जनाब चीफ प्रॉक्टर हैं. हाल ही में बने हैं, इसलिए कालेज में अनुशासन बनाए रखने के लिए अपनी युवाओं की एक समानांतर फौज नहीं बना पाए हैं. असल में कालेज में अनुशासन के लिए ये जरूरी है कि चीफ प्रॉक्टर के खेमे में दबंग छात्रों का एक गुट हो. तर्क ये है कि कांटे से ही कांटा निकाला जाता है. बहरहाल प्राक्टर के चैनल गेट पर आते ही नारों का जोश दोगुना हो गया. प्रॉक्टर कुछ कहने की कोशिश करते रहे, किसी ने नहीं सुना. बस एक आवाज आती रही, प्रिंसिपल को बुलाओ. और अगर प्रिंसिपल पहले खुद आ जाते, तो मांग होती कि बात तो अब बस वीसी से होगी. इसी दौरान कुछ अखबारों के फोटोग्राफर पहुंच गए हैं. कैमरे चलने लगे, नारे और तेज होने लगे. अधिकतर फोटो ऐसे हैं, जिनपर अगले दिन अखबारों में लिखा जाएगा, आक्रोशित छात्र और तस्वीर में अधिकतर के चेहरे पर मुस्कान होगी. जो खुदाई खिदमतगार टाइप के छात्र पहले चैनल गेट पर जोर-आजमाईश कर रहे थे, अब कैमरे की तरफ आ गए हैं. इन्होंने ये आर्ट सीख ली है कि दुनिया का सबसे बेहतरीन न्यूज फोटोग्राफर को बुला लीजिए, इनका चेहरा फ्रेम से आउट नहीं कर पाएगा.
संजय को अचानक इंस्टीट्यूट का ध्यान आया. वो तेजी से कालेज के बाहर की तरफ बढ़ गया. गेट के पास उसे अपने एक प्रोफेसर मिले. देशभर में उनका नाम है. इसलिए कि उनकी लिखी किताबों से ही सब्जेक्ट पढ़ाया जाता है. इसमें पता नहीं उनका कमाल है या उनकी किताब छापने वाले पब्लिशर की सेटिंग का. लेकिन प्रोफेसर साहब अपना ये हुनर क्लास में नहीं दिखा पाते. फुर्सत भी नहीं. उन्हें सिर्फ इस कालेज के नहीं, देश भर के छात्रों का भविष्य देखना होता है. संजय ने अदब से सर झुकाकर अभिवादन किया. प्रोफेसर साहब ने अपनी कलफ लगी गर्दन को एक खम देते हुए उसका जवाब दिया. संजय सड़क पर निकल आया. यहां से इंस्टीट्यूट तकरीबन डेढ़ किलोमीटर है. इंस्टीट्यूट तक का सफर संजय पैदल ही तय करता था. गर्मियों में वो गलियों के रास्ते धूप से बचता हुआ पहुंचता था. संजय रोज के रास्ते की गली में दाखिल हुआ. गली में कारें लगी हैं. और उसके बाद बस इतनी ही जगह है कि बामुश्किल कोई माहिर चालक अपनी दूसरी कार निकाल सके. गली में ठेले पर सब्जी बेचने वाला एक आंटीनुमा महिला से मोल-भाव कर रहा था. गर्मी की परवाह न करते हुए ये महिला अपने मूल गुण का परिचय देते हुए आलू के रेट पर पचास पैसे को लेकर विलक्षण किस्म की जिरह कर रही थी. कार और ठेले के बीच से बामुश्किल निकलते हुए संजय ने आगे की राह पकड़ी. गली में आगे खास हलचल नहीं थी. जिन्हें काम पर जाना था जा चुके थे, और बाकी जो लोग घरों में थे उनके आराम का समय शुरू हो गया था. दिमाग को जरा सी फुर्सत मिली, तो संजय के दिमाग में सुरेंद्र के लाल एअर बैग की तस्वीर घूम गई. पहला सवाल दिमाग में यही आया. सुरेंद्र के पास इतना पैसा कहां से आया. और पिस्टल.... फिर दिमाग ने जवाब दिया. कलेक्शन का काम करता है. शायद कलेक्शन का पैसा होगा. फिर दूसरे पल दिमाग ने सवाल दागा, अगर कलेक्शन का पैसा है, तो अपने पास क्यों रख रखा है. उसने तय किया कि इंस्टीट्यूट से लौटकर सुरेंद्र से बात करेगा. यही सब सोचता हुआ वो इंस्टीट्यूट पहुंचा. बाहर से चमकदार शीशे वाले इस इंस्टीट्यूट मे छोटे से स्पेस में बहुत छोटा सा लेक्चर रूम, उतनी ही छोटी कंप्यूटर लैब. उतनी ही छोटी वर्क्सशॉप और सबसे बड़ा रिसेप्शन और उतना ही बड़ा काउंसलिंग रूम था. सब कुछ इंस्टीट्यूट की जरूरत के हिसाब से. रुटीन की तरह आधी बातें समझने की कोशिश करते हुए, और आधी बिना समझे वो दो घंटे बाद इंस्टीट्यूट से निकला. खुद को ये तसल्ली देता हुआ, सर्टीफिकेट तो मिलेगा ही. काम तो आदमी प्रेक्टिकल करके सीखता है. बाहर निकलते ही सड़क थी, जिसके दोनों तरफ शहर का सबसे हाई क्लास मार्केट पसरा हुआ है. अमूमन इस मार्केट में लोग गाड़ियों में खरीदादारी करने आते हैं, और जो लोग बिना गाड़ी के आते हैं, वो उन लोगों को (आप समझदार हैं) देखने के लिए आते हैं, जो यहां खरीदारी करने आती हैं. यहां रियल शॉपर से ज्यादा विंडो शॉपर हर समय मौजूद रहते हैं. यही वजह है कि श्राद्ध में भी यहां भीड़ होती है. रेंगती गाड़ियों के रेले में संजय की नजर एक सफेद रंग की स्कार्पियो पर टिक गई. उसकी खिड़की से सुरेंद्र का चेहरा नजर आ रहा था. गाड़ी में और तीन लोग सवार नजर आ रहे थे. उसके बाद जगह मिलने पर गाड़ी आगे बढ़ गई.
क्रमशः
प्रिंसिपल आफिस के बाहर से गुजरते हुए संजय को भीड़ नजर आई. यहां अमूमन भीड़ होती है. कभी एडमिशन फार्म की भीड़, कभी एग्जाम फार्म की. कभी रोल नंबर की, कभी मार्कशीट की. और बाकी दिन स्टूडेंट हितों की लड़ाई की. इन हितों के लिए कभी छात्र संघ जरूरी होता है, तो कभी कालेज द्वारा तैयार की गई ब्लैक लिस्ट को समाप्त करना. चूंकि भीड़ में लड़कियां हैं, तो बात कुछ और है शायद. संजय ने जाकर एक परिचित से नजर आने वाले चेहरे से पूछा, क्या हुआ. उसने जवाब दिया, एमए इकनोमिक्स के फाइनल इयर में अस्सी पर्सेंट स्टूडेंट्स फेल हो गए थे. तब प्रिंसिपल, वीसी का घेराव किया था, तो दोनों ने वादा किया था कि कॉपी दोबारा चेक कराएंगे. अब सबको कहा जा रहा है कि फेल स्टूडेंट के तौर पर एग्जाम दो. प्रिंसिपल आफिस का चैनल गेट बंद था. तकरीबन एक दर्जन नौजवान अपनी ताकत उस चैनल गेट पर आजमा रहे थे. उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जिसका एमए इकनोमिक्स से कोई लेना-देना हो. लेकिन ये सब छात्र हितों के पहरेदार हैं. इन्होंने इस बात को अपने जीवन में उतार लिया है कि छात्र की न तो कोई कक्षा होती है, न सब्जेक्ट. छात्र बस छात्र होता है. इन्हें इस बात का भी यकीन हो चुका है कि पूरा एजुकेशन सिस्टम छात्रों के खिलाफ है. एग्जाम एक साजिश है. इनके कुछ तर्कों पर गौर कीजिए.... पढ़ाते हैं नहीं, एग्जाम क्यों लेते हैं. (बात में दम है न)
एक साथ इतने सारे स्टूडेंट्स फेल हुए हैं, ये जानबूझकर किया गया है (मानो कॉपी चेक करने वाले को इनके दोबारा एग्जाम में बैठने से कमीशन मिलता हो)
प्रिंसिपल मनमानी कर रहा है. (और आप उसका चैनल तोड़ देने पर उतारू हैं, वो क्या है)
तभी चैनल गेट पर एक चेहरा नजर आता है. ये जनाब चीफ प्रॉक्टर हैं. हाल ही में बने हैं, इसलिए कालेज में अनुशासन बनाए रखने के लिए अपनी युवाओं की एक समानांतर फौज नहीं बना पाए हैं. असल में कालेज में अनुशासन के लिए ये जरूरी है कि चीफ प्रॉक्टर के खेमे में दबंग छात्रों का एक गुट हो. तर्क ये है कि कांटे से ही कांटा निकाला जाता है. बहरहाल प्राक्टर के चैनल गेट पर आते ही नारों का जोश दोगुना हो गया. प्रॉक्टर कुछ कहने की कोशिश करते रहे, किसी ने नहीं सुना. बस एक आवाज आती रही, प्रिंसिपल को बुलाओ. और अगर प्रिंसिपल पहले खुद आ जाते, तो मांग होती कि बात तो अब बस वीसी से होगी. इसी दौरान कुछ अखबारों के फोटोग्राफर पहुंच गए हैं. कैमरे चलने लगे, नारे और तेज होने लगे. अधिकतर फोटो ऐसे हैं, जिनपर अगले दिन अखबारों में लिखा जाएगा, आक्रोशित छात्र और तस्वीर में अधिकतर के चेहरे पर मुस्कान होगी. जो खुदाई खिदमतगार टाइप के छात्र पहले चैनल गेट पर जोर-आजमाईश कर रहे थे, अब कैमरे की तरफ आ गए हैं. इन्होंने ये आर्ट सीख ली है कि दुनिया का सबसे बेहतरीन न्यूज फोटोग्राफर को बुला लीजिए, इनका चेहरा फ्रेम से आउट नहीं कर पाएगा.
संजय को अचानक इंस्टीट्यूट का ध्यान आया. वो तेजी से कालेज के बाहर की तरफ बढ़ गया. गेट के पास उसे अपने एक प्रोफेसर मिले. देशभर में उनका नाम है. इसलिए कि उनकी लिखी किताबों से ही सब्जेक्ट पढ़ाया जाता है. इसमें पता नहीं उनका कमाल है या उनकी किताब छापने वाले पब्लिशर की सेटिंग का. लेकिन प्रोफेसर साहब अपना ये हुनर क्लास में नहीं दिखा पाते. फुर्सत भी नहीं. उन्हें सिर्फ इस कालेज के नहीं, देश भर के छात्रों का भविष्य देखना होता है. संजय ने अदब से सर झुकाकर अभिवादन किया. प्रोफेसर साहब ने अपनी कलफ लगी गर्दन को एक खम देते हुए उसका जवाब दिया. संजय सड़क पर निकल आया. यहां से इंस्टीट्यूट तकरीबन डेढ़ किलोमीटर है. इंस्टीट्यूट तक का सफर संजय पैदल ही तय करता था. गर्मियों में वो गलियों के रास्ते धूप से बचता हुआ पहुंचता था. संजय रोज के रास्ते की गली में दाखिल हुआ. गली में कारें लगी हैं. और उसके बाद बस इतनी ही जगह है कि बामुश्किल कोई माहिर चालक अपनी दूसरी कार निकाल सके. गली में ठेले पर सब्जी बेचने वाला एक आंटीनुमा महिला से मोल-भाव कर रहा था. गर्मी की परवाह न करते हुए ये महिला अपने मूल गुण का परिचय देते हुए आलू के रेट पर पचास पैसे को लेकर विलक्षण किस्म की जिरह कर रही थी. कार और ठेले के बीच से बामुश्किल निकलते हुए संजय ने आगे की राह पकड़ी. गली में आगे खास हलचल नहीं थी. जिन्हें काम पर जाना था जा चुके थे, और बाकी जो लोग घरों में थे उनके आराम का समय शुरू हो गया था. दिमाग को जरा सी फुर्सत मिली, तो संजय के दिमाग में सुरेंद्र के लाल एअर बैग की तस्वीर घूम गई. पहला सवाल दिमाग में यही आया. सुरेंद्र के पास इतना पैसा कहां से आया. और पिस्टल.... फिर दिमाग ने जवाब दिया. कलेक्शन का काम करता है. शायद कलेक्शन का पैसा होगा. फिर दूसरे पल दिमाग ने सवाल दागा, अगर कलेक्शन का पैसा है, तो अपने पास क्यों रख रखा है. उसने तय किया कि इंस्टीट्यूट से लौटकर सुरेंद्र से बात करेगा. यही सब सोचता हुआ वो इंस्टीट्यूट पहुंचा. बाहर से चमकदार शीशे वाले इस इंस्टीट्यूट मे छोटे से स्पेस में बहुत छोटा सा लेक्चर रूम, उतनी ही छोटी कंप्यूटर लैब. उतनी ही छोटी वर्क्सशॉप और सबसे बड़ा रिसेप्शन और उतना ही बड़ा काउंसलिंग रूम था. सब कुछ इंस्टीट्यूट की जरूरत के हिसाब से. रुटीन की तरह आधी बातें समझने की कोशिश करते हुए, और आधी बिना समझे वो दो घंटे बाद इंस्टीट्यूट से निकला. खुद को ये तसल्ली देता हुआ, सर्टीफिकेट तो मिलेगा ही. काम तो आदमी प्रेक्टिकल करके सीखता है. बाहर निकलते ही सड़क थी, जिसके दोनों तरफ शहर का सबसे हाई क्लास मार्केट पसरा हुआ है. अमूमन इस मार्केट में लोग गाड़ियों में खरीदादारी करने आते हैं, और जो लोग बिना गाड़ी के आते हैं, वो उन लोगों को (आप समझदार हैं) देखने के लिए आते हैं, जो यहां खरीदारी करने आती हैं. यहां रियल शॉपर से ज्यादा विंडो शॉपर हर समय मौजूद रहते हैं. यही वजह है कि श्राद्ध में भी यहां भीड़ होती है. रेंगती गाड़ियों के रेले में संजय की नजर एक सफेद रंग की स्कार्पियो पर टिक गई. उसकी खिड़की से सुरेंद्र का चेहरा नजर आ रहा था. गाड़ी में और तीन लोग सवार नजर आ रहे थे. उसके बाद जगह मिलने पर गाड़ी आगे बढ़ गई.
क्रमशः
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