Search This Blog

Monday, December 26, 2011

Secrets of The Chambers-3


संजय ने तुरंत मोबाइल निकालकर सुरेंद्र के नंबर पर डायल किया. सुरेंद्र ने दूसरी ही घंटी पर फोन उठाया. संजय ने पूछा, कहां जा रहा है. सुरेंद्र ने जल्दी से कहा, कहीं नहीं. बस थोड़ा सा काम है. मैं दो-तीन दिन में लौटूंगा. फिर सुरेंद्र ने पूछा, तुझे कहां जाना है. संजय ने कहा, मैं तो होटल पर खाना खाकर रूम पर ही जाऊंगा. एक पल की खामोशी के बाद सुरेंद्र ने कहा, यार तू एक काम कर यहीं से गांव चला जा. संजय ने हैरान होते हुए पूछा, क्यों. सुरेंद्र ने कहा, ऐसा है.. और फिर उसकी आवाज आनी बंद हो गई. जैसे फोन बीच में कट गया हो. उसने कई बार नंबर ट्राई किया, लेकिन फोन अनरिचेबल होने का मैसेज आता रहा. संजय को कुछ समझ नहीं आया. उसे भूख लगी हुई थी. वैसे भी पैसे बचाने के चक्कर में उसने सुबह का नाश्ता बंद कर दिया है. बस दोपहर और रात का खाना खा रहा है. अब बुरा लगने लगा है बार-बार गांव से पैसे मंगाना. पिता जी तो पैसे भेज देते हैं, लेकिन वो जानता है कि छोटी सी खेती में वो कैसे उसका खर्च उठा रहे हैं.
संजय टहलता हुआ कालेज के पास मौजूद एक ढाबे पर पहुंचा. यहां अक्सर वो दोपहर का खाना खाता है. यहां कालेज के ही अधिकतर हॉस्टलर खाना खाते हैं. दरअसल यहां कुल मिलाकर चार टेबल हैं. जिसको जहां जगह मिल जाती है, थाली सजा लेता है. संजय भी पांच लोगों की थाली से लदी एक टेबल पर कोने में जम गया. अमूमन जो आवाज होटल पर सबसे पहली लगती है, वही उसने भी लगाई. छोटू... खाना लगा दे. छोटू जो अब छोटा नहीं रह गया था. इस ढाबे पर ड्यूटी बजाते हुए अब वो बीस साल का हो गया था, उसके सामने गिलास पटक गया. संजय खाने का इंतजार कर रहा था, तभी अधेड़ उम्र का एक शख्स होटल में दाखिल हुआ और सीधा संजय के सिर पर आ खड़ा हुआ. उसने बिना कोई परिचय दिए सपाट लहजे में कहा, जरा बाहर आ, तुझ से बात करनी है. संजय ने सिर उठाकर ऊपर की तरफ देखा. वो शख्स संजय के लिए सरासर अंजान था. संजय ने उठने की कोशिश न की, तो अजनबी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर टहोका. बाहर चल... संजय को ताव आ गया और उसने अजनबी का हाथ झटक दिया. उस समय ढाबे में मौजूद अधिकतर युवकों का ध्यान खाने से हटकर संजय की तरफ चला गया. अमूमन सब एक-दूसरे के लिए परिचित चेहरे थे. कालेज के ही एक लड़के से एक अजनबी की धौंस-पट्टी देखकर संजय की टेबल पर ही बैठा एक लड़का बोल पड़ा, कौन है बे तू. यो जब बाहर न जा रहा, तो क्यों जबरदस्ती कर रहा है. यहीं बता दे, क्या कहवे है. अजनबी के चेहरे पर अजीब से भाव आए, उसने ढाबे के बाहर की तरफ झांककर किसी को आने का इशारा किया. बाहर खड़ी दो बलेरो गाड़ियों में पांच लोग उतरे. उनमें से दो के हाथ में आटोमेटिक वैपन थे. सब धड़धड़ाते हुए अंदर घुसे, संजय ने उठने की कोशिश की, तो अधेड़ ने उसे धक्का देकर वहीं जमीन पर गिरा दिया. फिर आनन-फानन में पांचों लोगों ने उसे काबू में किया और धकेलते, लात मारते हुए बलेरो के पास लेकर पहुंचे. तीन लोग मिलकर उसे बलेरो के अंदर ठूंसने की कोशिश करने लगे. संजय अंदर न जाने के लिए जान लगाता रहा. इतनी देर में पीछे से किसी ने लात मारी और वो बलेरो की पिछली सीट पर मुंह के बल जाकर गिरा. संजय को कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी बलेरो का दूसरी तरफ का गेट खुला, और एक शख्स ने उसके सिर पर रिवाल्वर की बट मार दी. संजय के सर से पांव तक दर्द की लहर दौड़ गई. उसने शरीर ढीला छोड़ दिया. तब तक तमाशबीन इकट्ठा हो गए थे, लेकिन हथियार देखकर किसी की हिम्मत नहीं थी कि बीच में बोल जाए. आनन-फानन में गाड़ी में लोग सवार हुए, दरवाजे बंद हुए. उसके बाद दोनों ही गाड़ियां बिजली की तरह सड़क पर लपकी और सामने आने वाले को रौंद डालने के अंदाज में भीड़ भरी सड़कों पर दौड़ पड़ी. संजय पिछली सीट के नीचे फर्श की तरफ मुंह करके फंसा हुआ था. एक शख्स ने उसका उसका सिर पीछे से पकड़कर फर्श से सटा रखा था. तकरीबन आधा घंटा चलने के बाद गाड़ी रुकी. इस दौरान कोई किसी से कुछ नहीं बोला. सब लोग गाड़ी में बैठे रहे. आगे की सीट पर बैठे शख्स ने मोबाइल पर किसी से बात करनी शुरू की. हैलो ... सर जय हिंद... हॉस्टल वाला लड़का हाथ लग गया है. चंद सैकेंड की खामोशी के बाद उसने आगे कहा, ले आए हैं. इसका रूम चेक कर लिया. वहां कुछ नहीं मिला सर. दूसरी तरफ से किसी ने कुछ कहा, तो फिर संजय को आगे की सीट पर बैठे शख्स की आवाज आई, सर बताएगा कैसे नहीं.... जी सर.... ठीक है सर..... सर दो घंटे तो कम हैं........... ओके सर. जय हिंद सर.....
इसके बाद गाड़ी फिर चल पड़ी. पांच मिनट बाद गाड़ी रुकी. संजय को लात मारकर गाड़ी उतारा गया. उतरते ही एक और लात कमर पर लगी, तो संजय जमीन पर गिर पड़ा. फिर किसी ने पीछे से उसका कालर पकड़कर उठाया. संजय ने देखा, चारों तरफ खेत थे. खेत के बीच में दो कमरे बने थे. साथ में एक छोटी सी कोठरी थी, जो शायद ट्यूबवैल थी. संजय को कमरे के अंदर ले जाया गया. कमरे में कोई खास सामान नहीं था. एक कोने में मेज रखी थी. चार प्लास्टिक की कुर्सियां थीं. कमरे में घुसते ही संजय को एक धक्का लगा, वो ठंडे फर्श पर चित पड़ा था. संजय के दिमाग को जैसे लकवा मार गया था. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है. कमरे में उस समय तीन लोग मौजूद थे. दो ने कुर्सियां कब्जा लीं. तीसरे ने उसके पास पहुंचकर बिना कोई बात किए, उसकी पसली में जोरदार ठोकर मारी. संजय के मुंह से जोरदार कराह निकली. उसकी आंखों से पानी बहने लगा. ऐसी ही दो और ठोकर के बाद संजय को लगा कि वो अब और नहीं झेल सकता. वो ठोकर मारने वाले के पैर से लिपट गया. संजय दर्द भरी आवाज में मिमियाया... मुझे क्यों मार रहे हो. मैंने कुछ नहीं किया. मारने वाले ने अपने छुड़ाने की कोशिश की, संजय पैरों से लिपटा रहा. कुर्सी पर बैठे तमाशा देख रहे, दोनों लोगों में एक उठा और उसने पास आकर संजय की दोनों टागों के बीच जोरदार लात मारी. संजय पैर छोड़कर दोहरा होने लगा. अब बस उसके मुंह से मर गया... मर गया... की आवाज निकल रही थी. इसी दौरान किसी ने उसके बाल पकड़कर खींचे, दर्द से शरीर सीधा हुआ, तो फिर दो ठोकर लगी. अब संजय के होश जवाब देने लगे थे. उसका दिमाग बस ये पूछ रहा था कि मुझे क्यों मार रहे हैं... लेकिन ये सवाल दर्द के कारण जुबान तक नहीं आ रहा था... कोई संजय से कुछ नहीं पूछ रहा था.
तभी एक रौबदार आवाज कमरे में गूंजी, गजराज... कुछ बोला स्स्साला...
गजराज लेदर जैकेट पहने छह फिट के आदमी का नाम था, ना साहब... अपने आप तो यो कुछ न बोला... हमने अभी पूछी ना..
रौबदार आवाज वाला शख्स संजय के सिर के पास आ गया. कमरे में पहले से मौजूद एक शख्स ने संजय के सिर के पास प्लास्टिक की कुर्सी सरका दी. रौबदार आवाज वाला शख्स कुर्सी पर बैठ गया. उसने बहुत सर्द लहजे में संजय से कहा, तीस लाख कहा हैं......
संजय हैरान रह गया. उसने बामुश्किल ताकत जुटाकर पूछा, तीस लाख.... सर कौन से.... मुझे नहीं पता...
रौबदार आवाज वाले शख्स ने कुछ नहीं पूछा. गजराज संजय के पास आया और जमीन पर फैले दाएं हाथ की हथेली पर पैर रखकर खड़ा हो गया. गजराज ने कहा, मादर... तुझे साहब की बात समझ ना आई. तीस लाख कहां हैं....
संजय ने कहा, सर कोई गलतफहमी हुई है. सर मुझे सच में नहीं पता. सर मैं मां कसम कह रहा हूं. सर....
रौबदार आवाज फिर कमरे में गूंजी, गजराज ये बहुत शातिर लगता है. मुझे दो घंटे में कप्तान साहब को रिपोर्ट करना है. जो करना है करो, इसकी जुबान खुलवाओ...
इशारा मिलते ही दो लोगों ने संजय को उठाया और मेज पर उलटा लिटा दिया. संजय का मुंह फर्श की तरफ था. उसे नहीं पता था कि उसके साथ क्या होने वाला था. तभी उसके पैर के तलवे पर डंडे का जोरदार वार हुआ. ये दर्द असहनीय था. वो चिल्ला पड़ा, तो चार मजबूत हाथों ने उसे और मजबूती के साथ दबोच लिया. इसके बाद संजय के पैर पर डंडा चलता रहा, जब तक चीख सकता था संजय चीखा... फिर आवाज साथ छोड़ गई. वो गिड़गिड़ाता रहा... कभी उसके मुंह से निकलता सर माफ कर दो.... कभी, सर मर जाऊंगा.... कभी, सर मां कसम मैंने कुछ नहीं किया, कभी, मर गया..... कभी, आई.... मां..... मर गया..... कभी, .... मत मारो......
क्रमशः

Sunday, December 25, 2011

Secrets of The Chambers-2

संजय ने हॉस्टल के बाहर निकलकर कालेज कैंपस की तरफ चलना शुरू किया. सिनेमा के पर्दों पर नजर आने वाले कालेज जरूर कहीं होते होंगे. लेकिन देश के 95 फीसदी कालेज वैसे नहीं हैं. आईआईएम, आईआईटी या फिर पांच सितारा निजी कालेजों की तादाद बढ़ी है, लेकिन आज भी अस्सी फीसदी यूथ ऐसे ही कालेजों में पढ़ रहा है. कैंपस में क्लासेज की कतारे हैं. कई का ताला नहीं खुला है, और बाकी दिन खुलने की उम्मीद भी नहीं है. कुछ क्लासेज में कुछ टीचर्स गिनती के स्टूडेंट्स को पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, और स्टूडेंट्स पढ़ने की. जितने स्टूडेंट क्लासेज में हैं, उनसे बीस गुना ज्यादा कैंपस में इधर-उधर हैं. कुछ ने कैंपस में खड़े पुराने पेड़ों की पनाह लेकर मंडली जमा रखी है. कुछ ने गलियारों ने मुकाम पाया है. कालेज आने वाली अधिकतर लड़कियां पढ़ाई की औपचारिकता पूरी करके वापस जा चुकी हैं, या जाने वाली हैं. जून का महीना कभी कालेजों में सन्नाटे का समय हुआ करता होगा, यहां सेशन लेट है इसलिए जुलाई एंड में एग्जाम हो जाएं तो गनीमत. यहां किसी को किसी ने जबरदस्ती इंजीनियर बनने के लिए नहीं भेजा. यहां कोई ऐसा डायरेक्टर भी नहीं, जो सबको जबरन इंजीनियर बना देने पर उतारू हो. ये कालेज उस पूरे इंडियन सिस्टम के चमत्कार का विस्तार हैं, जो असल में चल नहीं रहे हैं, लेकिन फिर भी चल रहे हैं. ये ऐसे ही चलते आए हैं. यहां स्टूडेंट आकर लीडर बनते हैं, दबंग बनते हैं, मनचले बनते हैं, आंदोलनकारी बनते हैं, कालेज के आस-पास उगी दुकानों का ग्राहक बनते हैं, शाम को शराब के ठेके के रेगुलर पैसेंजर बनते हैं, कालेज में टीचर्स के बीच चल रही पॉलिटिक्स का मोहरा बनते हैं, बॉलीवुड की बोर फिल्मों की अर्थव्यवस्था बनते हैं.... बस स्टूडेंट नहीं बनते. कुछ गुदड़ी के लाल बन पाते हैं, तो उनके फोटो अखबार में छप जाते हैं. साथ में कालेज का गौरवशाली इतिहास छपता है. लेकिन ये गौरवशाली अतीत भी चंद चेहरों का मोहताज है. संजय ने पिछले तीन साल में इसे ऐसा ही पाया है. यहां दस-दस साल से जमे उसके साथी भी हमेशा सा ऐसा ही देखते आए हैं. और चाय की दुकानों पर मिल जाने वाले कुछ बुजुर्ग हो चुके एक्स स्टूडेंट्स भी इसके बारे में बहुत कुछ ऐसा ही बताते हैं.
प्रिंसिपल आफिस के बाहर से गुजरते हुए संजय को भीड़ नजर आई. यहां अमूमन भीड़ होती है. कभी एडमिशन फार्म की भीड़, कभी एग्जाम फार्म की. कभी रोल नंबर की, कभी मार्कशीट की. और बाकी दिन स्टूडेंट हितों की लड़ाई की. इन हितों के लिए कभी छात्र संघ जरूरी होता है, तो कभी कालेज द्वारा तैयार की गई ब्लैक लिस्ट को समाप्त करना. चूंकि भीड़ में लड़कियां हैं, तो बात कुछ और है शायद. संजय ने जाकर एक परिचित से नजर आने वाले चेहरे से पूछा, क्या हुआ. उसने जवाब दिया, एमए इकनोमिक्स के फाइनल इयर में अस्सी पर्सेंट स्टूडेंट्स फेल हो गए थे. तब प्रिंसिपल, वीसी का घेराव किया था, तो दोनों ने वादा किया था कि कॉपी दोबारा चेक कराएंगे. अब सबको कहा जा रहा है कि फेल स्टूडेंट के तौर पर एग्जाम दो. प्रिंसिपल आफिस का चैनल गेट बंद था. तकरीबन एक दर्जन नौजवान अपनी ताकत उस चैनल गेट पर आजमा रहे थे. उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जिसका एमए इकनोमिक्स से कोई लेना-देना हो. लेकिन ये सब छात्र हितों के पहरेदार हैं. इन्होंने इस बात को अपने जीवन में उतार लिया है कि छात्र की न तो कोई कक्षा होती है, न सब्जेक्ट. छात्र बस छात्र होता है. इन्हें इस बात का भी यकीन हो चुका है कि पूरा एजुकेशन सिस्टम छात्रों के खिलाफ है. एग्जाम एक साजिश है. इनके कुछ तर्कों पर गौर कीजिए.... पढ़ाते हैं नहीं, एग्जाम क्यों लेते हैं. (बात में दम है न)
एक साथ इतने सारे स्टूडेंट्स फेल हुए हैं, ये जानबूझकर किया गया है (मानो कॉपी चेक करने वाले को इनके दोबारा एग्जाम में बैठने से कमीशन मिलता हो)
प्रिंसिपल मनमानी कर रहा है. (और आप उसका चैनल तोड़ देने पर उतारू हैं, वो क्या है)
तभी चैनल गेट पर एक चेहरा नजर आता है. ये जनाब चीफ प्रॉक्टर हैं. हाल ही में बने हैं, इसलिए कालेज में अनुशासन बनाए रखने के लिए अपनी युवाओं की एक समानांतर फौज नहीं बना पाए हैं. असल में कालेज में अनुशासन के लिए ये जरूरी है कि चीफ प्रॉक्टर के खेमे में दबंग छात्रों का एक गुट हो. तर्क ये है कि कांटे से ही कांटा निकाला जाता है. बहरहाल प्राक्टर के चैनल गेट पर आते ही नारों का जोश दोगुना हो गया. प्रॉक्टर कुछ कहने की कोशिश करते रहे, किसी ने नहीं सुना. बस एक आवाज आती रही, प्रिंसिपल को बुलाओ. और अगर प्रिंसिपल पहले खुद आ जाते, तो मांग होती कि बात तो अब बस वीसी से होगी. इसी दौरान कुछ अखबारों के फोटोग्राफर पहुंच गए हैं. कैमरे चलने लगे, नारे और तेज होने लगे. अधिकतर फोटो ऐसे हैं, जिनपर अगले दिन अखबारों में लिखा जाएगा, आक्रोशित छात्र और तस्वीर में अधिकतर के चेहरे पर मुस्कान होगी. जो खुदाई खिदमतगार टाइप के छात्र पहले चैनल गेट पर जोर-आजमाईश कर रहे थे, अब कैमरे की तरफ आ गए हैं. इन्होंने ये आर्ट सीख ली है कि दुनिया का सबसे बेहतरीन न्यूज फोटोग्राफर को बुला लीजिए, इनका चेहरा फ्रेम से आउट नहीं कर पाएगा.
संजय को अचानक इंस्टीट्यूट का ध्यान आया. वो तेजी से कालेज के बाहर की तरफ बढ़ गया. गेट के पास उसे अपने एक प्रोफेसर मिले. देशभर में उनका नाम है. इसलिए कि उनकी लिखी किताबों से ही सब्जेक्ट पढ़ाया जाता है. इसमें पता नहीं उनका कमाल है या उनकी किताब छापने वाले पब्लिशर की सेटिंग का. लेकिन प्रोफेसर साहब अपना ये हुनर क्लास में नहीं दिखा पाते. फुर्सत भी नहीं. उन्हें सिर्फ इस कालेज के नहीं, देश भर के छात्रों का भविष्य देखना होता है. संजय ने अदब से सर झुकाकर अभिवादन किया. प्रोफेसर साहब ने अपनी कलफ लगी गर्दन को एक खम देते हुए उसका जवाब दिया. संजय सड़क पर निकल आया. यहां से इंस्टीट्यूट तकरीबन डेढ़ किलोमीटर है. इंस्टीट्यूट तक का सफर संजय पैदल ही तय करता था. गर्मियों में वो गलियों के रास्ते धूप से बचता हुआ पहुंचता था. संजय रोज के रास्ते की गली में दाखिल हुआ. गली में कारें लगी हैं. और उसके बाद बस इतनी ही जगह है कि बामुश्किल कोई माहिर चालक अपनी दूसरी कार निकाल सके. गली में ठेले पर सब्जी बेचने वाला एक आंटीनुमा महिला से मोल-भाव कर रहा था. गर्मी की परवाह न करते हुए ये महिला अपने मूल गुण का परिचय देते हुए आलू के रेट पर पचास पैसे को लेकर विलक्षण किस्म की जिरह कर रही थी. कार और ठेले के बीच से बामुश्किल निकलते हुए संजय ने आगे की राह पकड़ी. गली में आगे खास हलचल नहीं थी. जिन्हें काम पर जाना था जा चुके थे, और बाकी जो लोग घरों में थे उनके आराम का समय शुरू हो गया था. दिमाग को जरा सी फुर्सत मिली, तो संजय के दिमाग में सुरेंद्र के लाल एअर बैग की तस्वीर घूम गई. पहला सवाल दिमाग में यही आया. सुरेंद्र के पास इतना पैसा कहां से आया. और पिस्टल.... फिर दिमाग ने जवाब दिया. कलेक्शन का काम करता है. शायद कलेक्शन का पैसा होगा. फिर दूसरे पल दिमाग ने सवाल दागा, अगर कलेक्शन का पैसा है, तो अपने पास क्यों रख रखा है. उसने तय किया कि इंस्टीट्यूट से लौटकर सुरेंद्र से बात करेगा. यही सब सोचता हुआ वो इंस्टीट्यूट पहुंचा. बाहर से चमकदार शीशे वाले इस इंस्टीट्यूट मे छोटे से स्पेस में बहुत छोटा सा लेक्चर रूम, उतनी ही छोटी कंप्यूटर लैब. उतनी ही छोटी वर्क्सशॉप और सबसे बड़ा रिसेप्शन और उतना ही बड़ा काउंसलिंग रूम था. सब कुछ इंस्टीट्यूट की जरूरत के हिसाब से. रुटीन की तरह आधी बातें समझने की कोशिश करते हुए, और आधी बिना समझे वो दो घंटे बाद इंस्टीट्यूट से निकला. खुद को ये तसल्ली देता हुआ, सर्टीफिकेट तो मिलेगा ही. काम तो आदमी प्रेक्टिकल करके सीखता है. बाहर निकलते ही सड़क थी, जिसके दोनों तरफ शहर का सबसे हाई क्लास मार्केट पसरा हुआ है. अमूमन इस मार्केट में लोग गाड़ियों में खरीदादारी करने आते हैं, और जो लोग बिना गाड़ी के आते हैं, वो उन लोगों को (आप समझदार हैं) देखने के लिए आते हैं, जो यहां खरीदारी करने आती हैं. यहां रियल शॉपर से ज्यादा विंडो शॉपर हर समय मौजूद रहते हैं. यही वजह है कि श्राद्ध में भी यहां भीड़ होती है. रेंगती गाड़ियों के रेले में संजय की नजर एक सफेद रंग की स्कार्पियो पर टिक गई. उसकी खिड़की से सुरेंद्र का चेहरा नजर आ रहा था. गाड़ी में और तीन लोग सवार नजर आ रहे थे. उसके बाद जगह मिलने पर गाड़ी आगे बढ़ गई.
क्रमशः

Saturday, December 24, 2011

Secrets of the Chambers-1

22 जून 2011, बुधवार
संजय रोज की तरह सुबह तकरीबन नौ बजे चाय की दुकान पर था. टुकड़ों में बंटे अखबार के दो पेज उसके हिस्से आ पाए थे. ये चाय, नाई की दुकान, चलती बस, किसी डॉक्टर की ओपीडी या ऐसी ही तमाम जगह अखबार पढ़ने का हमारा राष्ट्रीय तरीका है. एक अखबार नौ बीमार. अमूमन जिसके हाथ में जो पेज होता है, उसे लगता है ज्यादा इंपोर्टेंट खबर वाला पेज किसी और के पास है. अखबार पढ़ने वाले मोटे तौर पर तीन किस्म के होते हैं. पहले वो जो अखबार जरूरत भर का पढ़ते हैं, अपने मतलब की चीजें देखते हैं, अपने इंट्रेस्ट का सेक्शन पढ़ते हैं. दूसरे वो, जो पूरा अखबार पढ़ते नहीं, देखते जरूर हैं. कहीं रुककर कोई खबर पढ़ ली. हेडलाइन्स पर नजर डाल ली. और तीसरे वो, जो अखबार को ये कसम खाकर हाथ में लेते हैं कि फोलियो से लेकर प्रिंट लाइन तक सब कुछ पढ़ना है. ये वो लोग हैं, जो शोक संदेश से लेकर टेंडर नोटिस तक उतने ही श्रद्धा व लगन के साथ पढ़ते हैं. संजय जिस किस्म की चाय की दुकान पर था, यहां तीनों किस्म के रीडर पाए जाते हैं. लेकिन सबसे ज्यादा सुखी वो हैं, जिन्हें अखबार का एक-एक शब्द पढ़ना है. और सबसे ज्यादा संजय जैसे लोग हैं, जिन्हें कुल पांच मिनट में पूरा अखबार देखना होता है. अपने हिस्से के दो पेज पढ़ने के बाद संजय ने चाय की चुस्कियां लेते हुए इधर-उधर नजर डाली. कोने में एक बुजुर्गवार तसल्ली से पालथी मारकर दो पेज कब्जाए हुए थे. वो अखबार के अंदर मुंह घुसाए थे और एक पन्ना जो संजय की तरफ नुमाया था, उस पर बड़े-बड़े शब्दों में हेडलाइन थी बैंक  के कैशियर को गोली मारकर तीस लाख लूटे. संजय को वारदात सनसनीखेज लगी, मन हुआ कि जरा डिटेल देख ले, लेकिन बुजुर्गवार की तल्लीन मुद्रा को देखकर उन्हें छेड़ना ठीक नहीं लगा. अमूमन ऐसे लोग छेड़ने पर ठीक वैसा रूप बना लेते हैं, जैसा पौराणिक कथाओं में ऋषि दुर्वासा का हो जाता था. उसकी नजर दुकान के अंदर टंगी घड़ी पर पड़ी. वो दस के आस-पास का समय दिखा रही थी. संजय फुर्ती से उठा. पांच का सिक्का चाय वाले की तरफ उछाला और वापस हॉस्टल की तरफ चल दिया.
हॉस्टल थोड़ा फैंसी शब्द है. अंग्रेजों के समय की बनी इस इमारत में कतार में बने हुए कमरे हैं. कमरे में लगे दरवाजे पिछले पचास साल से लोहे की संकल से बंद होते रहे हैं. दरवाजे की दरारों से गर्मी में लू, सर्दी में कोहरा बेरोक-टोक दाखिल होता है. ये दरारें इस बात की भी गवाह हैं कि हॉस्टल लाइफ में प्राइवेसी कुछ नहीं है. सब कुछ साझा है. इस्तेमाल के बोझ से टूट चुके टायलेट्स से लेकर कैंपस में पानी के स्थायी इंतजाम के तौर पर लगे हैंडपंप तक. हॉस्टल के लिए ही संजय ने इस कालेज में पोस्ट ग्रेजुएशन में दाखिला ले रखा है. बाकी तो वो इन दिनों कुछ सॉफ्टवेयर व कुछ हार्डवेयर के काकटेलनुमा कोर्स को कर रहा है. इस कोर्स के विज्ञापनों में चेहरे पर चमकदार मुस्कान लिए एक नौजवान नौकरी पाने के बाद किसी मैनेजरनुमा आदमी से हाथ मिलाता नजर आता है. कोर्स का कैचवर्ड है, कंप्लीट सॉल्यूशन. जब वो पहली बार इंस्टीट्यूट में कोर्स के बारे में बात करने आया, तो काउंसलर ने उसे कुछ यूं समझाया कि बिल गेट्स से लेकर स्टीव जॉब्स तक को अगर ये कोर्स मिल गया होता, तो शायद वो और बड़े चमत्कार कर सकते थे. संजय की क्लास साढ़े ग्यारह बजे से होती थी. वो हॉस्टल में अपने रूम पर पहुंचा, तो ताला खुला हुआ था. वो चौंकता हुआ, अंदर दाखिल हुआ, तो सुरेंद्र कमरे में बिछी चारपाई पर लेटा था. सुरेंद्र उसका रूम पार्टनर है. कहने को ही वो हॉस्टल में रहता है. कहने को ही उसका कालेज में दाखिला है. क्या करता है, पता नहीं चलता. दस-दस दिन गायब रहता है. फिर जैसे आता है, वैसे ही अचानक गायब हो जाता है. पूछने पर नई-नई स्कीम बताता है. एक साल पहले किसी रियल एस्टेट प्रोजेक्ट की बात कर रहा था. फिर उसके बाद एक लोकल नेता के साथ रहने लगा था. इन दिनों किसी कलेक्शन एजेंसी की ब्रांच संभालने का दावा करता है. उसकी माया वो ही जाने. सुरेंद्र ने दरवाजा खुलने पर मुंह पर तकिया रख लिया. संजय आनन-फानन में नहाया, तैयार हुआ. उसके बाद उसने अपने जूते की तलाश में जैसे ही चारपाई के नीचे देखा, तो वहां एक लाल रंग का एअर बैग रखा था. वो शायद सुरेंद्र का था. उसने जूते की तलाश में एअर बैग साइड किया, तो सुरेंद्र तुरंत उठ गया. उसने बैग उठाकर चारपाई पर सिरहाने रख लिया. संजय को उसका बिहेवियर अजीब लगा, उसने तत्काल कोई रियेक्शन नहीं दिया. जिस दौरान वो जूते पहन रहा था, सुरेंद्र का फोन बजा. उसने फोन उठाया और बोला, मोबाइल पर फोन क्यों किया. मना किया था. उधर से किसी ने कुछ कहा, फिर सुरेंद्र एक मिनट कहते हुए दरवाजे से बाहर निकलकर गलियारे में धीमे-धीमे बात करने लगा. इसी दौरान संजय कमरे से निकलते हुए ठिठका. चारपाई के ऊपर रखे बैग की उसने जिप खोली, तो दंग रह गया. बैग हजार के नोट की गड्डियों से भरा था. उन गड्डियों के बीच एक पिस्टल झांक रही थी. संजय के हाथ कांपने लगे. इसी दौरान सुरेंद्र कमरे में दाखिल हुआ और सारा मसला समझते ही उसने एअर बैग संजय के हाथ से छीन लिया. संजय के मुंह से एक शब्द न निकला, वो कमरे से निकला और हॉस्टल से बाहर आ गया.
क्रमशः

Secrets of the Chambers

देश के थानों की हवालातें कत्लगाह हैं. हिटलर के कंस्ट्रेशन कैंपों पर आज सत्तर साल बाद चर्चा करने वाले उन अंधेरी कोठरियों के अंदर क्यों नहीं झांकते, जहां जुर्म और जुल्म के बीच लकीर मिट जाती है. जहां जुबान बंद रखना मना है, जुबान खोलने पर ये जरूरी है कि पुलिस की पसंद की बात ही मुंह से निकले. रातों को अनगिनत सिसकियां पुलिस के जुल्म में दफन होती हैं. मनमाने कनफेशन लिखे जाते हैं, फर्जी बरामदगियां होती हैं. पुलिस के हाथ में मौजूद जुल्म के इस शॉर्टकट ने असल में सबसे ज्यादा नुकसान खुद पुलिस का ही किया है. अब पुलिस के पास क्राइम इनवेस्टीगेशन के माहिर नहीं बचे. वो पुलिसकर्मी अब गुजरे जमाने की बात हुए, जो सुबूतों की कड़ी जोड़कर मुल्जिम तक पहुंचते थे.रात को थाने की हवालातों का सच बताती इस कहानी में काफी कुछ सच है. पुलिस टार्चर की तफ्सील कुछ लोगों को डिस्टर्बिंग लग सकती है, लेकिन कहते हैं ट्रुथ हैज नो कलर. सच की कॉस्टमेटिक सर्जरी नहीं की जा सकती. इस लघु उपन्यास को लिखने में मदद के लिए मैं अपने मित्र सचिन का आभारी हूं. रिसर्च वर्क में उनका खासा योगदान रहा. इस मायने में उन्हें आप को-राइटर (सह लेखक)  ही मानें.
आपका
मृदुल

Wednesday, December 7, 2011

कत्ल तो होना ही था-2


जीप कोतवाली में दाखिल हुई. थाने में सरगर्मी थी. कोतवाल अपने दफ्तर में मौजूद थे. गेट पर पहरा (सिपाही) जो आदतन कोतवाली के अंदर घुसने वाले से पूछताछ में मशगूल था. विशाल को कुछ यूं जीप से बाहर धकेला गया कि बामुश्किल वो अपना संतुलन बना पाया. दिल्ली पुलिस के दरोगा के साथ आए दो सिपाही यूं विशाल की अगल-बगल आ खड़े हुए, जैसे अभी इनाम के लिए फोटो शूट होने वाला हो. दरोगा (जिसकी उम्र चुगली कर रही थी कि वो रैंकर था, यानी सिपाही से दो सितारों तक पहुंचा था) की छाती पर लगी नेम प्लेट उसका नाम ईश्वर सिंह बताती थी. दरोगा ने साथ आए सिपाहियों से कहा, गाड़ी में गेरो इसे. डीसीपी को मैन्ने बता दिया है. तलाशी होग्गी. वैपन न मिला इसके पास से. बूझ लो इससे. रस्ते में कहीं गेरा-फेंका होगा, तो बाद में आकर रिकवरी का काम बचेगा. इतना सुनते ही दोनों सिपाही उसे हवालात के बगल में बने गलियारे में ले गए. लेकिन किसी ने पूछा कुछ नहीं. दोनों हाथ-पैर से उस पर टूट पड़े. हवालात का ताला लगा रहे कोतवाली के सिपाही ने देखा तो आ गया. उसे तो ये तक नहीं पता था कि क्या मामला है, उसने भी चार-पांच लात जमाने के बाद कहा, दीवानजी क्यों हाथ-पैर चला रहे हो. फट्टा देता हूं. विशाल ने कुछ बोलने की कोशिश की, तो पहलवाननुमा सिपाही ने मुंह पर जोरदार तमाचा जड़ दिया. विशाल के साथ होने वाली मारपीट में इस पहलवाननुमा सिपाही की हिस्सेदारी अस्सी फीसदी थी. मानो वो इस बात पर एतबार ला चुका था कि उसकी पुलिस में भर्ती इसी नेक काम के लिए हुई है. तभी पीछे से दरोगा ईश्वर सिंह आ गया. विशाल लगभग पैरों में गिर जाने की हालत में ईश्वर सिंह के सामने गिड़गिड़ाने लगा, मैंने कत्ल नहीं किया. वो मेरा दोस्त था.
दरोगा किसी बड़े डिटेक्टिव के अंदाज में बोला, अच्छा... कत्ल. हमने तो किसी कत्ल के बारे में तेरे से पूछा भी नहीं. यू थाना ऐसी ही चीज होवे. न भी बूझो, तो भी आदमी यूं ही बोल्ले है. अच्छा चल अब कत्ल की बात आ गई है, तो यू बता गोली किस हथियार से मारी.
विशाल ने बामुश्किल थूक सटकते हुए कहा, सर मैंने नहीं मारा उसे. मैं जब पहुंचा तो फ्लैट में उसकी लाश पड़ी थी. मैं तो इस डर से भाग खड़ा हुआ कि कहीं कत्ल में मैं न फंस जाऊं.
ईश्वर सिंह बोला, देख भाई. फंस तो तू चुका है. डीसीपी ने तो मीडिया को भी ब्रीफ कर दिया है कि प्रवीण का कातिल उसका दोस्त विशाल है. अब तो भलाई इसी बात में है, साफ-साफ कह दे. पुलिस की मरम्मत से बच जागा.
विशाल बोला, सर मेरा यकीन करो. मैंने नहीं मारा उसे. मैं तो डर के मारे भाग गया था. फिर यहां आकर थोड़ा दिमाग लगाया तो समझ आया कि मैंने भागकर गलती कर दी. मैं तो खुद वापस पहुंचने वाला था.
ईश्वर सिंह बोला, देख भाई. मेरी बीस साल की नौकरी हो ली. मुझे तो अब तक कोई ना मिला, जो यूं कहवे कि मैंने कत्ल किया. हम पहुंच जा हैं, तो मुल्जिम कहवे है, हुजूर तुमने तकलीफ क्यों की. मैं तो आ ही रहा था. देख भाई वेपन बता दे. इकबालिया बयान दे. और जेल जा. ना तो दुर्गति बहुत होने वाली है तेरी.
कोतवाली का सिपाही फट्टा लहराता हुआ वहां पहुंच चुका था. ये एक रबड़ का बड़ा सा टुकड़ा था, जिसके एक कोने पर लकड़ी का हेंडल लगा था. रबड़ के टुकड़े पर एक तरफ नौसीखिए पेंटर से लिखवाया गया था, आजा मेरी जान.... विशाल के प्राण हलक में आ गए. वो जान गया था कि वो पुलिसिया जुल्म नहीं झेल सकता था. अब उसके सामने एक तरफ कुआं था, एक तरफ खाई. या तो हत्या न करने के बावजूद कत्ल की बात कुबूल करके फांसी पर लटक जाए. या फिर पुलिस की मार से मौत से बदतर हालत में पहुंच जाए. ऐसे समय में विशाल ने फैसला किया.
वो निर्णायक स्वर में बोला, हां, मैंने ही प्रवीण का कत्ल किया है.....
क्रमशः



कत्ल तो होना ही था

वो तेजी से सीढ़ियां उतरा. कुछ यूं कि लिफ्ट शर्मा जाए. गेट पर मौजूद सिक्योरिटी गार्ड पोस्ट के बगल में जल रही आंच को तेज करने की कोशिश कर रहा था. कोहरे की रात में वैसे भी कितनी ही सूखी लकड़ियां इकट्ठा कर लो, आंच मुश्किल से ही पकड़ती हैं. गार्ड के पलटने से पहले वो गेट के बाहर के अंधेरे में गुम हो गया. सुनसान फुटपाथ पर तकरीबन एक किलोमीटर चलने के बाद मेट्रो स्टेशन पर पहुंचा. अभी लास्ट सर्विस में टाइम था. मेट्रो में सवार होकर वो आईएसबीटी (अंतरराज्यीय बस अड्डे) पहुंचा. यहां बिना ज्यादा इंतजार किए उसे हरिद्वार की बस मिल गई. बस जैसे ही यूपी की सीमा में दाखिल हुई, उसने राहत की सांस ली. बस कोहरे के बावजूद अच्छी-खासी रफ्तार से दौड़ रही थी, जो इस बात की ताकीद करती थी कि ड्राइवर इस रास्ते से बखूबी वाकिफ है और उसे इस बात का भी गुमान है कि हादसे और लोगों के साथ ही हो सकते हैं.
अब उसकी पलकें भारी होने लगी थी. न जाने कब आंख लगी. रास्ते में जब उसकी आंख खुली, तो बस एक ढाबे पर रुकी हुई थी. ये बस वालों का तयशुदा ढाबा था, जहां ड्राइवर और कंडक्टर के लिए सब कुछ शानदार था और यात्री उस बकरे की तरह थे, जिसे रेतने के लिए ये ढाबा 24 घंटे खुला रहता था. कुछ खाने का दिल तो नहीं था, फिर उसे याद आया कि दिन में भी कुछ नहीं खाया है. शारीरिक जरूरत पूरी करने के लिए अधकचरे खाने को जैसे-तैसे ठूंसकर वो फिर सीट पर आ बैठा. उसे बस में बैठे उन लोगों से खासा रश्क हो रहा था, जिनके पास सर्दी से निपटने के लिए गर्म चादरें या बाकी इंतजाम थे. बस की खुद ब खुद खुल जाने वाली खिड़कियों और हर पांच मिनट में उन्हें बंद करने की जहमत ने उसे सोचने का ज्यादा समय नहीं दिया. बस जब हरिद्वार पहुंची, तो सुबह के चार बज रहे थे. बस को रुकने तक रिक्शाचालकों ने घेर लिया. उतरने से पहले ही रिक्शावालों ने आपस में तय कर लिया था कि काले बैग वाली सवारी किसकी है और सूटकेस वाली सवारी किसकी. ऐसे ही एक रिक्शावाले ने उससे पूछा, कहां चलेंगे. उसने कहा, किसी भी होटल में. ये किसी भी टूरिस्ट प्लेस या तीर्थ की अर्थव्यवस्था का हिस्सा है कि होटल का नाम सुनने के बाद रिक्शावाला पैसे तय नहीं करता. शहर के किसी भी कोने का होटल हो, रुपये दस ही देने पड़ते हैं. रिक्शा पास ही के एक होटल में लेकर पहुंचा. उसने ठीक ढंग से बोर्ड भी नहीं देखा और अंदर दाखिल हो गया. आखिरकार जरूरी औपचारिकता के बाद एक कमरे में उसे पहुंचा दिया गया. कमरे देखने में ठीक था, लेकिन एक अजीब सी सीलनभरी महक वहां बस चुकी थी. चादरों को पास में देखने पर पता चलता था कि पिछले गेस्ट के जाने के बाद उन्हें बदला नहीं गया है. बहरहाल वो बिना जूते उतारे ही बिस्तर पर पसर गया.
आंखें बंद करने की कोशिश करते ही उसकी आंखों के सामने प्रवीण की लाश घूम जाती थी. आनंद विहार के उस फ्लैट में प्रवीण भले ही अकेला रहता था, लेकिन उसका वो रोज का ठिकाना था. प्रवीण की वो पथराई आंखें, कनपटी पर काले दायरे वाला वो सुराख. बहकर गाढ़ा हो चुका कुछ काला, कुछ लाल खून. उसने खुद से पूछा, आखिर मैं वहां से क्यों भागा. कत्ल मैंने तो नहीं किया था. तुरंत दिमाग ने जवाब दिया- ये आखिर कैसे साबित करेगा. लास्ट कॉल प्रवीण ने तुझे की थी. कल ही पूरी सोसाइटी ने रात को उसके और तेरे बीच हुए झगड़े का तमाशा देखा. कम से कम एक दर्जन लोग बता देंगे कि प्रवीण का दोस्त विशाल कल रात गाली-गलौच के बीच उसे देख लेने, भुगत लेने की धमकी दे रहा था. मामूली सी तफ्तीश से कोई सिपाही भी पता लगा लेगा कि प्रवीण को उससे दो लाख रुपये लेने थे, जो उसने दोस्ती के नाते धंधे के लिए उसे दिए थे. ये भी आसानी से पता चल जाएगा कि विशाल ने रकम को चुकाने के लिए एक महीने पहले जो एक लाख रुपये का चेक दिया था, बाउंस हो गया था. लेकिन दिल ने जवाब दिया, विशाल तुम्हें भागना नहीं चाहिए था. फरारी तुम्हारे खिलाफ जाएगी. अब पुलिस मनमाना नतीजा निकालेगी और तुम जवाब देने के लिए मौजूद भी नहीं होओगे. कत्ल तुमने नहीं किया. तुम जानते हो. कब तक भाग पाओगे. कहां तक छिपोगे. असली कातिल गिरफ्तार हो न हो, तुम्हारी गिरफ्तारी तय है.
अचानक दिल में कहीं प्रवीण के न होने की टीस उठी. कितना प्यारा दोस्त था वो. आखिर उसने हमेशा सपोर्ट ही किया. अब भी वो अपना हाउसिंग लोन चुकाने में नाकामी के चलते ही तो पैसा वापस मांग रहा था. वो उसका पैसा था, वो मांग सकता था. फिर एक अपराधबोध ने विशाल को घेर लिया. मैं प्रवीण से क्यों लड़ा. क्यों मैंने उसे भला-बुरा कहा. वो अपने पैसे ही तो मांग रहा था. फिर वो उस रात प्रवीण के घर पर पिये आखिरी पैग को दोष देने लगा. दिल को समझाने की कोशिश करने लगा कि नशे में गलती हो गई. तुरंत दिल ने सवाल पूछा, सुबह तो नशा उतर गया था न. आखिरकार तुमने तो गलती या माफी भी नहीं मांगी. थककर प्रवीण ने ही फोन किया. दिमाग ने जवाब दिया, प्रवीण का फोन आते ही मैं तुरंत उसके घर भी तो पहुंचा. पूरे रास्ते ये सोचता हुआ पहुंचा कि उसे सॉरी बोलूंगा. लेकिन मौका ही नहीं मिला. प्रवीण का कत्ल हो चुका था.
विशाल का मन भारी हो चुका था. सबसे प्यारे दोस्त का कत्ल हो गया. सारी सुई उसकी तरफ घूम रही है. जहां उसे दोस्त के कातिल को पकड़वाने में मदद करनी चाहिए, वो बिना कत्ल किए ही उसका इलजाम सिर पर लिए भाग रहा है. विशाल के मन के अंदर से आवाज उठी. वो और नहीं भागेगा. कल खुद को पुलिस के हवाले कर देगा. चाहे जो अंजाम हो. उसने खुद से वादा किया, वो प्रवीण के कातिल को पकड़वाने में पुलिस की मदद करेगा. इन्हीं ख्यालों में न जाने कब उसे नींद आई. तकरीबन ग्यारह बजे रूम के गेट पर एक दस्तक से उसकी आंख खुली. उनींदे से चलते हुए उसने दरवाजा खोला तो गेट पर पुलिस थी. दो सिपाहियों ने यूं लपककर उसे काबू किया, जैसे ओसामा बिन लादेन को पकड़ा हो. उसने सिपाहियों के कंधे पर गौर किया, तो उत्तराखंड पुलिस के थे. लेकिन उनके साथ मौजूद दरोगा दिल्ली पुलिस का था. उसे विश्वास नहीं हुआ. अपनी हिंदुस्तानी पुलिस इतनी क्विक कैसे हो सकती है. चंद घंटों में पुलिस उस तक पहुंच गई थी. विशाल को बाहर जीप में बैठाया गया. होटल के बाहर भीड़ इकट्ठा हो गई थी. ये हम हिंदुस्तानियों की खासियत है कि कितने भी जरूरी काम से निकलें, मुफ्त में मनोरंजन का ये हमारा सनातन माध्यम हमारे कदम थाम लेता है. विशाल गिरफ्तार था. जीप की पिछली सीट पर दो सिपाहियों के बीच सैंडविच बना वो अपनी किस्मत को कोस रहा था. उसे इस बात का ज्यादा अफसोस था कि वो पुलिस के पास जाने वाला था, तो पुलिस पहले उसके पास क्यों पहुंच गई. पिछली सीट पर ही सामने बैठा दिल्ली पुलिस का दरोगा उसे यूं घूर रहा था जैसे बिना मुकदमे-अपील के यहीं फांसी लगा देगा.
क्रमशः

Monday, December 5, 2011

एक चोरी, एक फरेब-फाइनल पार्ट

अक्सर वारदात न खुलने का ये सिलसिला असल में पुलिस की वर्किंग की मूल खामी से जुड़ा हुआ है. कत्ल से लेकर जेबकतरी तक की घटनाओं में मुल्जिम सामने होता है, लेकिन पुलिस के हाथ उसके गिरेबां तक नहीं पहुंच पाते. कुछ मामलों में फर्जी गिरफ्तारियां होती हैं, जो कोर्ट में औंधे मुंह गिर जाती है. अपराध की जांच बहुत संजीदा मामला है. बिना पूर्वाग्रह के, हर संभावना-आशंका पर गौर करते हुए. शुबहा जांच की पहली कड़ी है. और अगर शक की पतली सी किरण भी किसी शख्स तक पहुंच रही है, तो उसका संदिग्ध के दायरे में रहना जरूरी है. अपराध की घटनाएं असल में तीन चीजों पर टिकी हैं. पहला अवसर. किसे वारदात अंजाम देने का मौका हासिल था. दूसरा मोटिव (किसके पास वारदात को अंजाम देने का उद्देश्य था). तीसरा क्षमता (यानी किसमें ये कुव्वत थी, अपराध को अंजाम देने के संसाधन भी इसी में शामिल हैं.
अगर पांच करोड़ की चोरी की इस वारदात में आप पुलिस की तफ्तीश को सिर्फ इन कसौटियों पर कसेंगे, तो इन तीनों की पैमानों पर पुलिस विफल रही. बस अवसर की उपलब्धता को लेकर सुविधाजनक निष्कर्ष और संभावित मुल्जिम को सामने देखकर उसने अपनी सोच के सारे दरवाजे बंद कर लिए. पुलिस की वर्किंग यही है. पहले मुल्जिम तलाशो, फिर उसे सुबूतों और गवाहों के जरिये फ्रेम कर दो. अजय कालरा पर पुलिस की पेश नहीं चली. लेकिन अब क्लाइमेक्स....
1. पूरे केस में सबसे निर्णायक और पॉजिटिव चीज गार्ड सही राम की गवाही थी, लेकिन पुलिस उसकी गवाही और सोनिया कालरा के इंकार के बीच ही अटक कर रह गई. उसने ये महसूस नहीं किया कि वह सही राम की गवाही और सोनिया कालरा के इंकार को एक साथ खारिज कर रही है.
2. मोटिव के मामले में जब ये तय हो गया था कि अजय कालरा के पास इस घटना को अंजाम देने का उद्देश्य नहीं है, तो फिर किसके पास है.
3. चोरी का अवसर अजय कालरा को मुहैया नहीं था. अजय कालरा चोर नहीं था, तो फिर और किसको चोरी का अवसर मुहैया था.
अब नतीजा देखिएः
चोरी की वारदात में सबसे बड़ा फरेब सोनिया कालरा की गवाही थी. सही राम की गवाही ऐन दुरुस्त थी. उसे किसी के खिलाफ गवाही देने की जरूरत नहीं थी. न ही किसी को फंसाने का कोई उद्देश्य उसके पास था. फिर सोनिया कालरा इस बात से क्यों मुकरी कि वो रात में अजय कालरा के दफ्तर में थीं. वो अजय कालरा के दफ्तर में थीं. उन्हें लगा कि सही राम उन्हें देख सकता है, इसलिए उन्होंने जोर से कहा कि अजय अंधेरे में तुम क्या कर रहे हो. असल में सोनिया कालरा उस समय किसी अपने को बचा रही थीं. वो अपना और कौन हो सकता है. अजय कालरा का बेटा शिशिर. असल में जिस समय सोनिया कालरा नीचे पहुंची, तो उस समय शिशिर करेंसी चेस्ट से चोरी कर रहा था. ठीक उसी समय उन्हें गार्ड सहीराम के खिड़की पर होने का अहसास हुआ. उन्हें त्वरित बुद्धि से काम लेते हुए अपने पति अजय का नाम लिया. उन्हें अंदाजा था कि अजय कालरा का नाम सुनकर सहीराम मुतमईन हो जाएगा. साथ ही अगर कल चोरी की वारदात खुल जाती है, तो सहीराम की गवाही से शक अजय कालरा की तरफ जाएगा और अजय कालरा चूंकि उस समय घटनास्थल पर नहीं थे तो अपने आप को आसानी से बेदाग साबित कर लेंगे. सोनिया कालरा की ये तरकीब काम कर गई. पुलिस अजय कालरा के पीछे लगी रही, जिन्होंने एक झटके में खुद को निर्दोष साबित कर दिया. बेटा पांच करोड़ की रकम लेकर निकल गया. और पांच करोड़ की इंडियन करेंसी को विदेशी करेंसी में बदलवाना किसी भी हवाला कारोबारी के लिए चुटकी का खेल है. शिशिर ने इस रकम की सूरत नेपाल में जाकर चेंज की, जहां भारतीय करेंसी बिना इंडियन एजेंसी की निगरानी के आराम से चलती है. पुलिस की फाइलों में ये मामला आज भी अनसुलझा पड़ा है.
एक ऐसा मामला जिसमें एक चोरी शामिल थी और पुलिस को मूर्ख बनाने लायक एक फरेब भी....



Saturday, December 3, 2011

एक चोरी, एक फरेब-4

वारदात असल में एक जख्म की तरह होती है. वक्त के साथ सूखता है. जिसके साथ घटना हुई, वो दिन-रात की मसरूफियत में उलझता है, जिन लोगों का इंटरेस्ट होता है, वो डाइवर्ट होने लगता है. लेकिन पांच करोड़ की चोरी, जिसमें न चोर का पता, न रकम बरामद, बातें उठनी तो लाजिमी थी. फिर भी पुलिस की खाल बहुत मोटी होती है. अखबारों में खबर मुख्य पेज से सरककर अंदर के पेज पर चली गई. फिर कुछ पंक्तियों में सिमटने लगी. वारदात को तकरीबन डेढ़ महीना हो चुका था. अब अजय कालरा अस्पताल से निजात पाकर घर आ चुके थे. हालांकि डॉक्टर्स ने उन्हें बता दिया था कि किस्मत ने साथ दिया है, बच गए हैं. अब जरा सा भी दबाव दिल बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है.
पुलिस ने डेढ़ महीने बाद पहली बार वारदात के सिलसिले में अजय कालरा का बयान लिया. इस बयान ने पुलिस के छक्के छुड़ा दिए. पुलिस की कहानी रेत की इमारत तक ढह गई. अजय कालरा के पास इस बाबत पुख्ता एलिबाई थी कि वो रात सवा आठ बजे घर से दस किलोमीटर दूर एक थियेटर में मौजूद थे. असल में अजय कालरा के पास उस दिन सिटी में होने वाली एक मशहूर गजल सिंगर की नाइट का वीवीआईपी पास था. जिस समय वो नाइट में पहुंचे, तो उनकी सीट पर एक नेताजी जमे थे. अजय कालरा ने अपनी ही सीट पर बैठने की जिद पकड़ ली, जिसके चलते नाइट में खासा हंगामा खड़ा हो गया था. अजय कालरा अपनी सीट लेकर ही माने. नाइट के आयोजक से लेकर नेताजी तक सबको ये वाकया बखूबी याद था. रात पौने ग्यारह बजे तक वो नाइट में मौजूद थे और उसके बाद घर पहुंचे तो बाहर ही बेटा मिल गया. अजय कालरा अब चोरी की वारदात में खुद को बेदाग साबित कर चुके थे. उन्होंने बताया कि सुबह तकरीबन नौ बजे जब वह अपने दफ्तर में पहुंचे तो करेंसी चेस्ट खुला हुआ था और रकम गायब थी. पुलिस अब खाली हाथ थी. कोई रास्ता उसके सामने नहीं था. अब तक जो वारदात बस मुल्जिम की गिरफ्तारी के इंतजार थी, उसमें कहानी जहां से शुरू हुई थी, वहीं पहुंच चुकी थी.
अजय कालरा पर हाथ डालने की अब पुलिस की हिम्मत नहीं थी. कालरा भी अब नौकरी से छुट्टी पाकर रिटायरमेंट की लाइफ जीने के तलबगार थे. उन्होंने ऋषिकेश के पास पहले से ही इसी दिन के लिए एक छोटा सा फ्लैट ले रखा था. सोनिया और अजय कालरा गंगा किनारे शांति का जीवन जीने के लिए ऋषिकेश चले गए. बेटा विदेश में नौकरी पा गया था. पुलिस को न तो पांच करोड़ का सुराग लगा, न ही मुल्जिम का. पुलिस ने नोट के नंबर सीरिज के बारे में देशभर के वित्तीय संस्थानों व बैंकों को अलर्ट भेजा. लेकिन कहीं रकम की बरामदगी न हुई. देश के अलग-अलग कोनों में एक-दो कभी-कभी मिल जाने के अलावा कोई सुराग पुलिस के हाथ नहीं लगा. अब ये माना जा चुका था कि चोरी की ये मिस्ट्री सुलझने वाली नहीं है.
(क्या आपको लगता है कि ये मिस्ट्री सुलझने वाली नहीं थी. आखिर रकम चोरी हुई, पांच करोड़. चोर तो कहीं था. और सबसे बड़ी बात, उस रकम के साथ मजे में)
क्रमशः

Friday, December 2, 2011

एक चोरी, एक फरेब-3

पवार उठने लगा, तो डीआईजी कुर्सी पर पहलू बदलते हुए बोले- सुनो, इस वारदात को लेकर रात तक मीडिया वाले तुम्हें भी फोन करेंगे. स्टोरी प्लांट कर देना. कह देना केस लगभग खुल गया है. अजय कालरा ने चोरी की है. हमारे पास गवाह भी है, सुबूत भी. फिर वो मुझसे पुष्टि करने की कोशिश करेंगे, मैं हामी भर दूंगा. कम से कम कल अखबारों में तो ज्यादा शोर नहीं मचेगा. कुछ चैनल्स पर खबर दिन में चल रही थी. उन्हें भी बाइट्स दे देना.
पवार- सर. दो टीम बनाई हैं. अभी अजय कालरा की माली हालत चेक करने का काम शुरू हो रहा है. असल में कल बैंक्स के खुलने पर ज्यादा बेहतर हो पाएगा. शहर में तमाम लोग उसे जानते हैं. करीबियों की लिस्ट बनाई है. उनके जरिये कालरा की कुंडली खंगाली जा रही है.
पवार कमरे से निकलते हुए ठिठका.. पलटकर कुछ यूं बोला जैसे अभी ध्यान आया हो - सर आपने जिस मामले में एफआर के लिए कहा था, उसमें फाइनल रिपोर्ट सीओ साहब के यहां भिजवा दी है. लेकिन सर थानेदार और इनवेस्टिगेशन आफिसर बहुत ना-नुकुर कर रहे थे. उन्हें बताया भी कि आपका आर्डर है, लेकिन कहने लगे कि सर हमें सीधे भी तो कह सकते थे.
डीआईजी के चेहरे पर साफ नाराजगी के भाव आए. बोले- एक तो वारदात नहीं खुलती. ऊपर से इनकी मिन्नत करें. चलो कल क्राइम मीटिंग है. सारा नजला ठीक हो जाएगा. तुम जरा इस समय इनवेस्टिगेशन पर कम और कल सुबह के न्यूज मैनेजमेंट पर ज्यादा ध्यान देना. वैसे ही विधानसभा का सत्र चल रहा है. जरा सी बात पर हल्ला-गुल्ला मचा देता है अपोजिशन. और हां, अपोजिशन पार्टी के विधायक राम प्रकाश का प्रतिनिधि मौका-ए-वारदात पर पहुंचा था. तुम सीधे विधायक को ब्रीफ कर देना कि केस सॉल्व होने वाला है. नहीं तो कल विधानसभा में बवंडर खड़ा करेगा.
पवार- सर.
इंस्पेक्टर के निकलते ही डीआईजी ने कुर्सी पर यूं पहलू बदला जैसे कितने थक गए हों. घड़ी पर नजर डाली तो छह बज चुके थे. याद आया कि श्रीमती आज थ्री इडियट्स देखने के मूड में थी. शाम का प्रोग्राम बनाते हुए डीआईजी विदा हुए.


रात नौ बजे
पुलिस लाइन की जर्जर सी इमारत के दो कमरों में चलने वाला एंटी थैफ्ट सेल का दफ्तर. असल में ये दो कमरे साहब के मिजाज वाले स्कवॉड का दफ्तर होती हैं. पिछले डीआईजी के समय में ये एंटी टेरेरिस्ट सेल का दफ्तर थी. उससे पहले गुंडा दमन दल (यानी छेड़छाड़ के खिलाफ अभियान चलाने वाली टीम). और उससे पहले स्पेशल इनवेस्टिगेशन सेल. असल में जब मौजूदा डीआईजी ने चार्ज लिया, उसके अगले दिन ही एक सीनियर आईपीएस ऑफिसर की साली के घर में चोरी हो गई. राजधानी से डंडा चला, तो रातों-रात एंटी थैफट सेल का गठन हो गया. अब बिना काम के इस स्कवॉड से पीछा छुड़ाने के लिए सिपाही और दरोगा पेशकार को पैसे देते हैं. बहरहाल आज ये दफ्तर रात में भी गुलजार है. पवार मीडिया को अपनी पसंद की घुट्टी पिला चुका है. सही राम की गवाही से लेकर अजय कालरा की रात में अपने दफ्तर में मौजूदगी तक का किस्सा कल चोरी की वारदात की रिपोर्टिंग पर हावी होगा. लेकिन बात खत्म नहीं हुई है. अभी घटना तो ज्यों कि त्यों सामने है.
पवार- शहजाद, क्या कुछ हाथ लगा.
शहजाद (जो इंस्पेक्टर का मुंहलगा दरोगा है)- साहब, अजय कालरा की साख तो बहुत अच्छी है. क्लब चक्कर मार कर आया था. सालों से उसके साथ उठने बैठने वाले उसके नाम की कसम खाते हैं. कंपनी के एमडी आफिस फोन किया था. वहां चीफ मैनेजर आपरेशंस से फोन पर बात हुई. उन्होंने अजय कालरा के इस वारदात में शामिल होने की किसी भी आशंका से साफ इनकार कर दिया. लाख दलीलें देने पर भी वो इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हुए. कालरा का नाम इस मामले में आने की सूरत में उन्होंने तमाम किस्म की धमकियां और दे डाली हैं. कंपनी के मालिकान सत्तारूढ़ पार्टी के बहुत नजदीकी हैं साहब. मुझे तो लगता है कि हमें अपनी स्पीड कुछ स्लो कर देनी चाहिए.
पवार- क्या मतलब. हमें पता है चोर कौन है. अब कंपनी की जिद है कि हम कालरा को चोर न माने, तो इस बात को कैसे माना जा सकता है. और अगर वो लोग ये जिद कर रहे हैं, तो इसका ये मतलब भी तो लगाया जा सकता है कि कंपनी खुद कालरा के साथ मिलकर चोरी करा रही है. मेरी कल सुबह कंपनी बात कराना. मैं उन्हें ये सारी तीन-तेरह पुलिस के अंदाज में समझाऊंगा, तो समझ आ जाएगी.
कुछ पल की खामोशी के बाद पवार ने अनमने से अंदाज में कहा-महिला थाने से एक दरोगा को भी तो भेजा था सोनिया कालरा से बात करने के लिए. कोई लौटकर बताता ही नहीं क्या हुआ. औरतों के साथ तो और ज्यादा दिक्कत है. मैडम चूल्हा फूंकने की जल्दी में बिना रिपोर्ट किए ही निकल गईं.
शहजाद- नहीं साहब. दरोगा रितु गई थीं. वो लाइन में ही रहती हैं. वो आफिस में बताकर गईं हैं कि ड्रेस चेंज करके आ रही हैं.
पवार- चलो आओ... एक बार फिर पूरी कहानी दोहरा लें. चोरी पांच करोड़ की हुई. करेंसी चेस्ट तक बिल्डिंग के अंदर से कालरा की पहुंच थी. चाबी कालरा के पास थी. रात को उसने चोरी की. उस समय सोनिया कालरा भी वहां पहुंची थीं. गार्ड सही राम ने उन्हें देखा. रातभर चोरी के बाद मचने वाले हंगामे के तनाव या अपराधबोध में सुबह कालरा को हार्ट अटैक हो गया. (फिर पवार धीरे से बुदबुदाया, बिल्कुल ठीक. बस रकम बरामद हो जाए)


अगले दिन सुबह अखबारों में पांच करोड़ की चोरी के साथ हेडिंग में इस बात का भी जिक्र था कि मैनेजर ने ही वारदात को अंजाम दिया है. पुलिस के सुबूतों और गवाहों की सजती सी कहानी भी लोगों के सामने थी. वारदात की सनसनी पर पानी डल चुका था. मीडिया में फायर फाइटिंग के बाद पुलिस की रुटीन कवायद शुरू हुई. अजय कालरा के खाते खंगाले गए. वह बहुत सुलझा हुआ इंसान था. उसके खाते में सारी रकम नंबर एक की थी. इनवेस्टमेंट बहुत समझदारी के साथ किए गए थे, जो उसे बहुत अच्छा रिटर्न दे रहे थे. कुल मिलाकर बुढ़ापा बहुत आराम से कट जाए, इसका सारा इंतजाम था. इनवेस्टमेंट-असेस्ट्स के मामले में अजय कालरा करोड़पति हस्ती निकला, जिसके आयकर रिटर्न ऐन दुरुस्त थे. पुलिस ने लाख सिर खपाया, लेकिन कोई क्रिमनल हिस्ट्री नहीं. जरा सी भी उंगली उठ सके, इतना तक मामला नहीं. पुलिस की मजबूरी इसलिए बढ़ गई कि कालरा अस्पताल के आईसीयू में था. पुलिस के हथकंडे, यानी थर्ड डिग्री की संभावना नहीं थी. अगर अजय कालरा ठीक-ठाक होता, तो चोरी में शामिल न होते हुए भी पुलिस के थाने में इकबालिया बयान दे चुका होता. और फोटो खिंचवाकर जेल चला गया होता. डीआईजी से लेकर पवार तक हाथ मल रहे थे, लेकिन डाक्टर्स का कहना था कि कालरा से अभी उसके परिवार के लोग ही नहीं मिल सकते. खैर समय गुजर रहा था, मामला ठंडा पड़ रहा था. बिना रिकवरी, बिना इकबालिया बयान और बिना मोटिव, कैसे कालरा पर मुकदमा चलेगा. इस सारे केस में अब रिकवरी और मोटिव (उद्देश्य) बहुत अहम रूप ले चुके थे. कालरा पर उंगली उठाने वाली इकलौती गवाही सही राम की थी, लेकिन उसने भी कालरा को अपनी आंख से नहीं देखा था. सोनिया कालरा को देखने और आवाज सुनने की वो गवाही देता था, लेकिन सोनिया कालरा उतने ही पुरजोर ढंग से इस बात से इंकार कर रही थी. महिला पुलिस ने तमाम पैंतरों से सोनिया कालरा से पूछताछ कर ली थी, लेकिन वो इस बात से टस से मस न हुई कि चोरी की वारदात वाली रात वो घर के नीचे बैंकर की बिल्डिंग में अपने पति के दफ्तर में गई थीं. मीडिया में कुछ समझदार पत्रकार अब पुलिस की कहानी की धज्जियां उड़ाने लगे थे.
क्रमशः

Thursday, December 1, 2011

एक चोरी, एक फरेब-2

एंटी थैफ्ट सेल ने शाम तकरीबन चार बजे वारदात को लेकर अपनी रिपोर्ट अफसरों के सामने रखी. सुबह-सुबह चोरी की सूचना पर भागे दरोगाओं के चेहरे से साफ नजर आ रहा था कि न नींद पूरी हुई है, न खाना. बहरहाल वारदात को लेकर कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं. जुर्म की तह तक जाने के लिए घटना की कड़ी का मिलना बहुत जरूरी है. मौका-ए-वारदात असल में मोती के टूटे दानों की माला की तरह है. एक-एक मोती तलाशना और उसे सिलसिले से पिरोना माला को तैयार करने या मुल्जिम के लिए जरूरी है. लेकिन पुलिस क्या करती है, इसका अंदाजा जरा इस वारदात को लेकर हुई तफ्तीश, बयान, सुबूत और फिर उससे निकलने वाले निष्कर्ष से लगाइये.
डीआईजी- हां, पवार बताओ क्या निकला.
पवार (जो असल में संजय पवार नाम का इंस्पेक्टर है)- सर मामला लगभग खुल गया है. चोरी की घटना मैनेजर कालरा ने ही अंजाम दी है. हमारे पास ठोस गवाह है, परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं.
डीआईजी- फिर वो वहां बेहोश क्यों पड़ा था. हमें तो बताया गया कि हालत बहुत सीरियस है उसकी.
पवार- साहब वो चोरी तो कर गया, लेकिन सुबह होते-होते अंजाम का अहसास हुआ, तो दिल जवाब दे गया. वैसे अब उसकी हालत स्टेबल है. लेकिन पुलिस से बात करने लायक तो शायद एक महीने में भी नहीं हो पाएगा.
डीआईजी- तो क्या किया जाए. गिरफ्तारी भी नहीं हो सकती. घर की तलाशी लो. रात भर में पांच करोड़ कहां छिपाया होगा. बरामदगी ही हो जाए, तो जान छूटे.
पवार- सर, तलाशी हो गई. कुछ नहीं मिला.
डीआईजी- अरे. फिर... अच्छा चलो ये बताओ कि गवाहों और सुबूतों के जरिये वारदात का क्या नक्शा बनता है.
पवार- सर, आपने मौके पर देखा था. नीचे दफ्तर है, ऊपर मैनेजर का आवास है. आफिस में कैशियर, कलेक्टर व बाकी स्टाफ समेत तीस लोग हैं. शाम पांच बजे स्टाफ के जाने के बाद नीचे के हिस्से को बाहर से लॉक कर दिया जाता है. खुद मैनेजर कालरा उसे लॉक करते थे. रात आठ बजे यहां मौजूद सिक्योरिटी गार्ड की शिफ्ट चेंज होती थी. रात की शिफ्ट परमानेंट तौर पर एक ही गार्ड करता रहा है. पिछले पांच साल से सही राम यहां गार्ड है. रिटायर्ड फौजी है. बेदाग रिकार्ड. बहुत भरोसेमंद. इस भरोसे का ही तकाजा है कि दिन वाले सिक्योरिटी गार्ड से दोगुनी तनख्वाह पाता है. अंदर जाने के लिए एक और रास्ता है, जो ऊपर के फ्लोर, यानी अजय कालरा के मौजूदा निवास से है. ये सीढ़ियां मैनेजर के दफ्तर के ठीक बराबर में एक गलियारे में नीचे उतरती हैं. तयशुदा रुटीन के मुताबिक अजय कालरा बाहर से ग्राउंड फ्लोर को लॉक करने के बाद परिसर में बनी सीढ़ियों से ऊपर जाते थे. फिर अंदर के जीने से नीचे उतरकर दफ्तर में जाते थे. बाकी काम निपटाते थे. जिसमें अमूमन उन्हें सात बज जाते थे. रात तकरीबन आठ बजे नियमित तौर पर वो एक क्लब में जाते थे, जहां से लौटते-लौटते उन्हें दस बज जाते थे.
डीआईजी- हूं, तो सारी चाबी उनके पास होती थीं. और मौका भी. अच्छा घर में कौन-कौन है.
पवार- पत्नी और एक बेटा. श्रीमती सोनिया कालरा हाउसवाइफ हैं. बेटा शिशिर अभी दो महीने पहले ही सीए कंपलीट करके कालरा के दफ्तर में ही काम करता है. फिलहाल प्रोबेशन पीरियड पर है, लेकिन बैंकर की प्लानिंग शिशिर को नोएडा आफिस में शिफ्ट करने की है. बेटा तो शाम साढ़े पांच बजे ही हेल्थ क्लब चला जाता है. जहां से रात को देर से ही लौटता था.
डीआईजी- गवाहों से क्या निकला.
पवार- सर सबसे चौंकाने वाली जानकारी, या यूं कहिए केस का टर्निंग पाइंट सिक्योरिटी गार्ड सही राम की गवाही है. सही राम रात आठ बजे ड्यूटी पर पहुंचा. उसने सारे लॉक चेक किए. इसके बाद सही राम सिक्योरिटी गार्ड रूम में बैठ गया, जहां सीसी टीवी कैमरे पर वो बैंक के अंदर भी नजर रख सकता है. सही राम के मुताबिक रात आठ बजकर पांच मिनट पर बिल्डिंग के ऊपर के पोर्शन के दरवाजे के खुलने और बंद होने की आवाज आई. फिर गाड़ी स्टार्ट हुई. ये आवाज वो रोज सुनता रहा है. उसने नतीजा निकाला कि अजय कालरा क्लब चले गए हैं. लेकिन तकरीबन सवा आठ बजे उसकी स्क्रीन पर नजर पड़ी. निचले फ्लोर पर बहुत कम रोशनी थी. अजय कालरा के यानी मैनेजर के कमरे में नीम अंधेरा था. केबिन का दरवाजा खुला हुआ था और उसके गेट पर सोनिया कालरा खड़ी थीं. सही राम गार्ड रूम और बिल्डिंग के बीच बने लोहे के मजबूत जाल वाले पारदर्शी पैनल पर पहुंचा. सोनिया कालरा उस समय कह रही थीं, अजय तुम गए नहीं. अंधेरे में अपने केबिन में क्या कर रहे हो. सहीराम मुतमईन हो गया कि केबिन में अजय कालरा हैं तो वो अपनी सीट पर लौट आया. तब तक केबिन लॉक हो चुका था. यानी अजय और सोनिया कालरा ऊपर जा चुके थे. शिशिर रात को तकरीबन ग्यारह बजे लौटा, उस समय अजय कालरा अपनी गाड़ी गैराज में पार्क कर रहे थे. दोनों ने ऊपर जाकर खाना खाया और सो गए. सुबह नौ बजे अजय कालरा रोज की तरह नीचे आए. चूंकि अजय कालरा नाश्ता करके नहीं आए थे, इसलिए सोनिया कालरा उन्हें बुलाने के लिए नीचे आईं. जहां उन्होंने खुली करेंसी चेस्ट के सामने अजय कालरा को बेहोश पाया.
डीआईजी- ये तो ओपन एंड शट केस हैं. सोनिया कालरा क्या कहती हैं सही राम की शहादत के बारे में.
पवार- सर वो तो इस बात से साफ मुकर गईं कि वो कल रात नीचे गईं थी और अपने पति से बात की थी.
डीआईजी- और क्या कहेगी पवार. सही राम की हां-हां में मिलाने का मतलब वो भी जानती है. सहीराम की गवाही उनके पति को चोर ठहरा रही है. ऐसे में कोई भी समझदार औरत कानून का डंडा तो झेल लेगी, लेकिन पति को बचाने की कोशिश करेगी. अजय कालरा की माली हालत चेक कराओ. सारे सुबूत चौकस रखो. जरा शिफा पा जाए ये कालरा का बच्चा. तुरंत जेल की हवा खाएगा.
पवार- ओके सर...
क्रमशः

Apradh with Mridul