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Wednesday, December 7, 2011

कत्ल तो होना ही था-2


जीप कोतवाली में दाखिल हुई. थाने में सरगर्मी थी. कोतवाल अपने दफ्तर में मौजूद थे. गेट पर पहरा (सिपाही) जो आदतन कोतवाली के अंदर घुसने वाले से पूछताछ में मशगूल था. विशाल को कुछ यूं जीप से बाहर धकेला गया कि बामुश्किल वो अपना संतुलन बना पाया. दिल्ली पुलिस के दरोगा के साथ आए दो सिपाही यूं विशाल की अगल-बगल आ खड़े हुए, जैसे अभी इनाम के लिए फोटो शूट होने वाला हो. दरोगा (जिसकी उम्र चुगली कर रही थी कि वो रैंकर था, यानी सिपाही से दो सितारों तक पहुंचा था) की छाती पर लगी नेम प्लेट उसका नाम ईश्वर सिंह बताती थी. दरोगा ने साथ आए सिपाहियों से कहा, गाड़ी में गेरो इसे. डीसीपी को मैन्ने बता दिया है. तलाशी होग्गी. वैपन न मिला इसके पास से. बूझ लो इससे. रस्ते में कहीं गेरा-फेंका होगा, तो बाद में आकर रिकवरी का काम बचेगा. इतना सुनते ही दोनों सिपाही उसे हवालात के बगल में बने गलियारे में ले गए. लेकिन किसी ने पूछा कुछ नहीं. दोनों हाथ-पैर से उस पर टूट पड़े. हवालात का ताला लगा रहे कोतवाली के सिपाही ने देखा तो आ गया. उसे तो ये तक नहीं पता था कि क्या मामला है, उसने भी चार-पांच लात जमाने के बाद कहा, दीवानजी क्यों हाथ-पैर चला रहे हो. फट्टा देता हूं. विशाल ने कुछ बोलने की कोशिश की, तो पहलवाननुमा सिपाही ने मुंह पर जोरदार तमाचा जड़ दिया. विशाल के साथ होने वाली मारपीट में इस पहलवाननुमा सिपाही की हिस्सेदारी अस्सी फीसदी थी. मानो वो इस बात पर एतबार ला चुका था कि उसकी पुलिस में भर्ती इसी नेक काम के लिए हुई है. तभी पीछे से दरोगा ईश्वर सिंह आ गया. विशाल लगभग पैरों में गिर जाने की हालत में ईश्वर सिंह के सामने गिड़गिड़ाने लगा, मैंने कत्ल नहीं किया. वो मेरा दोस्त था.
दरोगा किसी बड़े डिटेक्टिव के अंदाज में बोला, अच्छा... कत्ल. हमने तो किसी कत्ल के बारे में तेरे से पूछा भी नहीं. यू थाना ऐसी ही चीज होवे. न भी बूझो, तो भी आदमी यूं ही बोल्ले है. अच्छा चल अब कत्ल की बात आ गई है, तो यू बता गोली किस हथियार से मारी.
विशाल ने बामुश्किल थूक सटकते हुए कहा, सर मैंने नहीं मारा उसे. मैं जब पहुंचा तो फ्लैट में उसकी लाश पड़ी थी. मैं तो इस डर से भाग खड़ा हुआ कि कहीं कत्ल में मैं न फंस जाऊं.
ईश्वर सिंह बोला, देख भाई. फंस तो तू चुका है. डीसीपी ने तो मीडिया को भी ब्रीफ कर दिया है कि प्रवीण का कातिल उसका दोस्त विशाल है. अब तो भलाई इसी बात में है, साफ-साफ कह दे. पुलिस की मरम्मत से बच जागा.
विशाल बोला, सर मेरा यकीन करो. मैंने नहीं मारा उसे. मैं तो डर के मारे भाग गया था. फिर यहां आकर थोड़ा दिमाग लगाया तो समझ आया कि मैंने भागकर गलती कर दी. मैं तो खुद वापस पहुंचने वाला था.
ईश्वर सिंह बोला, देख भाई. मेरी बीस साल की नौकरी हो ली. मुझे तो अब तक कोई ना मिला, जो यूं कहवे कि मैंने कत्ल किया. हम पहुंच जा हैं, तो मुल्जिम कहवे है, हुजूर तुमने तकलीफ क्यों की. मैं तो आ ही रहा था. देख भाई वेपन बता दे. इकबालिया बयान दे. और जेल जा. ना तो दुर्गति बहुत होने वाली है तेरी.
कोतवाली का सिपाही फट्टा लहराता हुआ वहां पहुंच चुका था. ये एक रबड़ का बड़ा सा टुकड़ा था, जिसके एक कोने पर लकड़ी का हेंडल लगा था. रबड़ के टुकड़े पर एक तरफ नौसीखिए पेंटर से लिखवाया गया था, आजा मेरी जान.... विशाल के प्राण हलक में आ गए. वो जान गया था कि वो पुलिसिया जुल्म नहीं झेल सकता था. अब उसके सामने एक तरफ कुआं था, एक तरफ खाई. या तो हत्या न करने के बावजूद कत्ल की बात कुबूल करके फांसी पर लटक जाए. या फिर पुलिस की मार से मौत से बदतर हालत में पहुंच जाए. ऐसे समय में विशाल ने फैसला किया.
वो निर्णायक स्वर में बोला, हां, मैंने ही प्रवीण का कत्ल किया है.....
क्रमशः



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