देश के थानों की हवालातें कत्लगाह हैं. हिटलर के कंस्ट्रेशन कैंपों पर आज सत्तर साल बाद चर्चा करने वाले उन अंधेरी कोठरियों के अंदर क्यों नहीं झांकते, जहां जुर्म और जुल्म के बीच लकीर मिट जाती है. जहां जुबान बंद रखना मना है, जुबान खोलने पर ये जरूरी है कि पुलिस की पसंद की बात ही मुंह से निकले. रातों को अनगिनत सिसकियां पुलिस के जुल्म में दफन होती हैं. मनमाने कनफेशन लिखे जाते हैं, फर्जी बरामदगियां होती हैं. पुलिस के हाथ में मौजूद जुल्म के इस शॉर्टकट ने असल में सबसे ज्यादा नुकसान खुद पुलिस का ही किया है. अब पुलिस के पास क्राइम इनवेस्टीगेशन के माहिर नहीं बचे. वो पुलिसकर्मी अब गुजरे जमाने की बात हुए, जो सुबूतों की कड़ी जोड़कर मुल्जिम तक पहुंचते थे.रात को थाने की हवालातों का सच बताती इस कहानी में काफी कुछ सच है. पुलिस टार्चर की तफ्सील कुछ लोगों को डिस्टर्बिंग लग सकती है, लेकिन कहते हैं ट्रुथ हैज नो कलर. सच की कॉस्टमेटिक सर्जरी नहीं की जा सकती. इस लघु उपन्यास को लिखने में मदद के लिए मैं अपने मित्र सचिन का आभारी हूं. रिसर्च वर्क में उनका खासा योगदान रहा. इस मायने में उन्हें आप को-राइटर (सह लेखक) ही मानें.
आपका
मृदुल
आपका
मृदुल
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