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Saturday, December 24, 2011

Secrets of the Chambers-1

22 जून 2011, बुधवार
संजय रोज की तरह सुबह तकरीबन नौ बजे चाय की दुकान पर था. टुकड़ों में बंटे अखबार के दो पेज उसके हिस्से आ पाए थे. ये चाय, नाई की दुकान, चलती बस, किसी डॉक्टर की ओपीडी या ऐसी ही तमाम जगह अखबार पढ़ने का हमारा राष्ट्रीय तरीका है. एक अखबार नौ बीमार. अमूमन जिसके हाथ में जो पेज होता है, उसे लगता है ज्यादा इंपोर्टेंट खबर वाला पेज किसी और के पास है. अखबार पढ़ने वाले मोटे तौर पर तीन किस्म के होते हैं. पहले वो जो अखबार जरूरत भर का पढ़ते हैं, अपने मतलब की चीजें देखते हैं, अपने इंट्रेस्ट का सेक्शन पढ़ते हैं. दूसरे वो, जो पूरा अखबार पढ़ते नहीं, देखते जरूर हैं. कहीं रुककर कोई खबर पढ़ ली. हेडलाइन्स पर नजर डाल ली. और तीसरे वो, जो अखबार को ये कसम खाकर हाथ में लेते हैं कि फोलियो से लेकर प्रिंट लाइन तक सब कुछ पढ़ना है. ये वो लोग हैं, जो शोक संदेश से लेकर टेंडर नोटिस तक उतने ही श्रद्धा व लगन के साथ पढ़ते हैं. संजय जिस किस्म की चाय की दुकान पर था, यहां तीनों किस्म के रीडर पाए जाते हैं. लेकिन सबसे ज्यादा सुखी वो हैं, जिन्हें अखबार का एक-एक शब्द पढ़ना है. और सबसे ज्यादा संजय जैसे लोग हैं, जिन्हें कुल पांच मिनट में पूरा अखबार देखना होता है. अपने हिस्से के दो पेज पढ़ने के बाद संजय ने चाय की चुस्कियां लेते हुए इधर-उधर नजर डाली. कोने में एक बुजुर्गवार तसल्ली से पालथी मारकर दो पेज कब्जाए हुए थे. वो अखबार के अंदर मुंह घुसाए थे और एक पन्ना जो संजय की तरफ नुमाया था, उस पर बड़े-बड़े शब्दों में हेडलाइन थी बैंक  के कैशियर को गोली मारकर तीस लाख लूटे. संजय को वारदात सनसनीखेज लगी, मन हुआ कि जरा डिटेल देख ले, लेकिन बुजुर्गवार की तल्लीन मुद्रा को देखकर उन्हें छेड़ना ठीक नहीं लगा. अमूमन ऐसे लोग छेड़ने पर ठीक वैसा रूप बना लेते हैं, जैसा पौराणिक कथाओं में ऋषि दुर्वासा का हो जाता था. उसकी नजर दुकान के अंदर टंगी घड़ी पर पड़ी. वो दस के आस-पास का समय दिखा रही थी. संजय फुर्ती से उठा. पांच का सिक्का चाय वाले की तरफ उछाला और वापस हॉस्टल की तरफ चल दिया.
हॉस्टल थोड़ा फैंसी शब्द है. अंग्रेजों के समय की बनी इस इमारत में कतार में बने हुए कमरे हैं. कमरे में लगे दरवाजे पिछले पचास साल से लोहे की संकल से बंद होते रहे हैं. दरवाजे की दरारों से गर्मी में लू, सर्दी में कोहरा बेरोक-टोक दाखिल होता है. ये दरारें इस बात की भी गवाह हैं कि हॉस्टल लाइफ में प्राइवेसी कुछ नहीं है. सब कुछ साझा है. इस्तेमाल के बोझ से टूट चुके टायलेट्स से लेकर कैंपस में पानी के स्थायी इंतजाम के तौर पर लगे हैंडपंप तक. हॉस्टल के लिए ही संजय ने इस कालेज में पोस्ट ग्रेजुएशन में दाखिला ले रखा है. बाकी तो वो इन दिनों कुछ सॉफ्टवेयर व कुछ हार्डवेयर के काकटेलनुमा कोर्स को कर रहा है. इस कोर्स के विज्ञापनों में चेहरे पर चमकदार मुस्कान लिए एक नौजवान नौकरी पाने के बाद किसी मैनेजरनुमा आदमी से हाथ मिलाता नजर आता है. कोर्स का कैचवर्ड है, कंप्लीट सॉल्यूशन. जब वो पहली बार इंस्टीट्यूट में कोर्स के बारे में बात करने आया, तो काउंसलर ने उसे कुछ यूं समझाया कि बिल गेट्स से लेकर स्टीव जॉब्स तक को अगर ये कोर्स मिल गया होता, तो शायद वो और बड़े चमत्कार कर सकते थे. संजय की क्लास साढ़े ग्यारह बजे से होती थी. वो हॉस्टल में अपने रूम पर पहुंचा, तो ताला खुला हुआ था. वो चौंकता हुआ, अंदर दाखिल हुआ, तो सुरेंद्र कमरे में बिछी चारपाई पर लेटा था. सुरेंद्र उसका रूम पार्टनर है. कहने को ही वो हॉस्टल में रहता है. कहने को ही उसका कालेज में दाखिला है. क्या करता है, पता नहीं चलता. दस-दस दिन गायब रहता है. फिर जैसे आता है, वैसे ही अचानक गायब हो जाता है. पूछने पर नई-नई स्कीम बताता है. एक साल पहले किसी रियल एस्टेट प्रोजेक्ट की बात कर रहा था. फिर उसके बाद एक लोकल नेता के साथ रहने लगा था. इन दिनों किसी कलेक्शन एजेंसी की ब्रांच संभालने का दावा करता है. उसकी माया वो ही जाने. सुरेंद्र ने दरवाजा खुलने पर मुंह पर तकिया रख लिया. संजय आनन-फानन में नहाया, तैयार हुआ. उसके बाद उसने अपने जूते की तलाश में जैसे ही चारपाई के नीचे देखा, तो वहां एक लाल रंग का एअर बैग रखा था. वो शायद सुरेंद्र का था. उसने जूते की तलाश में एअर बैग साइड किया, तो सुरेंद्र तुरंत उठ गया. उसने बैग उठाकर चारपाई पर सिरहाने रख लिया. संजय को उसका बिहेवियर अजीब लगा, उसने तत्काल कोई रियेक्शन नहीं दिया. जिस दौरान वो जूते पहन रहा था, सुरेंद्र का फोन बजा. उसने फोन उठाया और बोला, मोबाइल पर फोन क्यों किया. मना किया था. उधर से किसी ने कुछ कहा, फिर सुरेंद्र एक मिनट कहते हुए दरवाजे से बाहर निकलकर गलियारे में धीमे-धीमे बात करने लगा. इसी दौरान संजय कमरे से निकलते हुए ठिठका. चारपाई के ऊपर रखे बैग की उसने जिप खोली, तो दंग रह गया. बैग हजार के नोट की गड्डियों से भरा था. उन गड्डियों के बीच एक पिस्टल झांक रही थी. संजय के हाथ कांपने लगे. इसी दौरान सुरेंद्र कमरे में दाखिल हुआ और सारा मसला समझते ही उसने एअर बैग संजय के हाथ से छीन लिया. संजय के मुंह से एक शब्द न निकला, वो कमरे से निकला और हॉस्टल से बाहर आ गया.
क्रमशः

2 comments:

Ajay Garg said...

बहुत असरदार लिखा है, मृदुल भाई!! भाषा सरल और प्रवाहमय, और दृष्टांत आम ज़िंदगी से जुड़े हुए.... लिखते रहिए, पढ़ता रहूंगा!!!

mridul tyagi said...

थैंक्स भाई....

Apradh with Mridul