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Wednesday, December 7, 2011

कत्ल तो होना ही था

वो तेजी से सीढ़ियां उतरा. कुछ यूं कि लिफ्ट शर्मा जाए. गेट पर मौजूद सिक्योरिटी गार्ड पोस्ट के बगल में जल रही आंच को तेज करने की कोशिश कर रहा था. कोहरे की रात में वैसे भी कितनी ही सूखी लकड़ियां इकट्ठा कर लो, आंच मुश्किल से ही पकड़ती हैं. गार्ड के पलटने से पहले वो गेट के बाहर के अंधेरे में गुम हो गया. सुनसान फुटपाथ पर तकरीबन एक किलोमीटर चलने के बाद मेट्रो स्टेशन पर पहुंचा. अभी लास्ट सर्विस में टाइम था. मेट्रो में सवार होकर वो आईएसबीटी (अंतरराज्यीय बस अड्डे) पहुंचा. यहां बिना ज्यादा इंतजार किए उसे हरिद्वार की बस मिल गई. बस जैसे ही यूपी की सीमा में दाखिल हुई, उसने राहत की सांस ली. बस कोहरे के बावजूद अच्छी-खासी रफ्तार से दौड़ रही थी, जो इस बात की ताकीद करती थी कि ड्राइवर इस रास्ते से बखूबी वाकिफ है और उसे इस बात का भी गुमान है कि हादसे और लोगों के साथ ही हो सकते हैं.
अब उसकी पलकें भारी होने लगी थी. न जाने कब आंख लगी. रास्ते में जब उसकी आंख खुली, तो बस एक ढाबे पर रुकी हुई थी. ये बस वालों का तयशुदा ढाबा था, जहां ड्राइवर और कंडक्टर के लिए सब कुछ शानदार था और यात्री उस बकरे की तरह थे, जिसे रेतने के लिए ये ढाबा 24 घंटे खुला रहता था. कुछ खाने का दिल तो नहीं था, फिर उसे याद आया कि दिन में भी कुछ नहीं खाया है. शारीरिक जरूरत पूरी करने के लिए अधकचरे खाने को जैसे-तैसे ठूंसकर वो फिर सीट पर आ बैठा. उसे बस में बैठे उन लोगों से खासा रश्क हो रहा था, जिनके पास सर्दी से निपटने के लिए गर्म चादरें या बाकी इंतजाम थे. बस की खुद ब खुद खुल जाने वाली खिड़कियों और हर पांच मिनट में उन्हें बंद करने की जहमत ने उसे सोचने का ज्यादा समय नहीं दिया. बस जब हरिद्वार पहुंची, तो सुबह के चार बज रहे थे. बस को रुकने तक रिक्शाचालकों ने घेर लिया. उतरने से पहले ही रिक्शावालों ने आपस में तय कर लिया था कि काले बैग वाली सवारी किसकी है और सूटकेस वाली सवारी किसकी. ऐसे ही एक रिक्शावाले ने उससे पूछा, कहां चलेंगे. उसने कहा, किसी भी होटल में. ये किसी भी टूरिस्ट प्लेस या तीर्थ की अर्थव्यवस्था का हिस्सा है कि होटल का नाम सुनने के बाद रिक्शावाला पैसे तय नहीं करता. शहर के किसी भी कोने का होटल हो, रुपये दस ही देने पड़ते हैं. रिक्शा पास ही के एक होटल में लेकर पहुंचा. उसने ठीक ढंग से बोर्ड भी नहीं देखा और अंदर दाखिल हो गया. आखिरकार जरूरी औपचारिकता के बाद एक कमरे में उसे पहुंचा दिया गया. कमरे देखने में ठीक था, लेकिन एक अजीब सी सीलनभरी महक वहां बस चुकी थी. चादरों को पास में देखने पर पता चलता था कि पिछले गेस्ट के जाने के बाद उन्हें बदला नहीं गया है. बहरहाल वो बिना जूते उतारे ही बिस्तर पर पसर गया.
आंखें बंद करने की कोशिश करते ही उसकी आंखों के सामने प्रवीण की लाश घूम जाती थी. आनंद विहार के उस फ्लैट में प्रवीण भले ही अकेला रहता था, लेकिन उसका वो रोज का ठिकाना था. प्रवीण की वो पथराई आंखें, कनपटी पर काले दायरे वाला वो सुराख. बहकर गाढ़ा हो चुका कुछ काला, कुछ लाल खून. उसने खुद से पूछा, आखिर मैं वहां से क्यों भागा. कत्ल मैंने तो नहीं किया था. तुरंत दिमाग ने जवाब दिया- ये आखिर कैसे साबित करेगा. लास्ट कॉल प्रवीण ने तुझे की थी. कल ही पूरी सोसाइटी ने रात को उसके और तेरे बीच हुए झगड़े का तमाशा देखा. कम से कम एक दर्जन लोग बता देंगे कि प्रवीण का दोस्त विशाल कल रात गाली-गलौच के बीच उसे देख लेने, भुगत लेने की धमकी दे रहा था. मामूली सी तफ्तीश से कोई सिपाही भी पता लगा लेगा कि प्रवीण को उससे दो लाख रुपये लेने थे, जो उसने दोस्ती के नाते धंधे के लिए उसे दिए थे. ये भी आसानी से पता चल जाएगा कि विशाल ने रकम को चुकाने के लिए एक महीने पहले जो एक लाख रुपये का चेक दिया था, बाउंस हो गया था. लेकिन दिल ने जवाब दिया, विशाल तुम्हें भागना नहीं चाहिए था. फरारी तुम्हारे खिलाफ जाएगी. अब पुलिस मनमाना नतीजा निकालेगी और तुम जवाब देने के लिए मौजूद भी नहीं होओगे. कत्ल तुमने नहीं किया. तुम जानते हो. कब तक भाग पाओगे. कहां तक छिपोगे. असली कातिल गिरफ्तार हो न हो, तुम्हारी गिरफ्तारी तय है.
अचानक दिल में कहीं प्रवीण के न होने की टीस उठी. कितना प्यारा दोस्त था वो. आखिर उसने हमेशा सपोर्ट ही किया. अब भी वो अपना हाउसिंग लोन चुकाने में नाकामी के चलते ही तो पैसा वापस मांग रहा था. वो उसका पैसा था, वो मांग सकता था. फिर एक अपराधबोध ने विशाल को घेर लिया. मैं प्रवीण से क्यों लड़ा. क्यों मैंने उसे भला-बुरा कहा. वो अपने पैसे ही तो मांग रहा था. फिर वो उस रात प्रवीण के घर पर पिये आखिरी पैग को दोष देने लगा. दिल को समझाने की कोशिश करने लगा कि नशे में गलती हो गई. तुरंत दिल ने सवाल पूछा, सुबह तो नशा उतर गया था न. आखिरकार तुमने तो गलती या माफी भी नहीं मांगी. थककर प्रवीण ने ही फोन किया. दिमाग ने जवाब दिया, प्रवीण का फोन आते ही मैं तुरंत उसके घर भी तो पहुंचा. पूरे रास्ते ये सोचता हुआ पहुंचा कि उसे सॉरी बोलूंगा. लेकिन मौका ही नहीं मिला. प्रवीण का कत्ल हो चुका था.
विशाल का मन भारी हो चुका था. सबसे प्यारे दोस्त का कत्ल हो गया. सारी सुई उसकी तरफ घूम रही है. जहां उसे दोस्त के कातिल को पकड़वाने में मदद करनी चाहिए, वो बिना कत्ल किए ही उसका इलजाम सिर पर लिए भाग रहा है. विशाल के मन के अंदर से आवाज उठी. वो और नहीं भागेगा. कल खुद को पुलिस के हवाले कर देगा. चाहे जो अंजाम हो. उसने खुद से वादा किया, वो प्रवीण के कातिल को पकड़वाने में पुलिस की मदद करेगा. इन्हीं ख्यालों में न जाने कब उसे नींद आई. तकरीबन ग्यारह बजे रूम के गेट पर एक दस्तक से उसकी आंख खुली. उनींदे से चलते हुए उसने दरवाजा खोला तो गेट पर पुलिस थी. दो सिपाहियों ने यूं लपककर उसे काबू किया, जैसे ओसामा बिन लादेन को पकड़ा हो. उसने सिपाहियों के कंधे पर गौर किया, तो उत्तराखंड पुलिस के थे. लेकिन उनके साथ मौजूद दरोगा दिल्ली पुलिस का था. उसे विश्वास नहीं हुआ. अपनी हिंदुस्तानी पुलिस इतनी क्विक कैसे हो सकती है. चंद घंटों में पुलिस उस तक पहुंच गई थी. विशाल को बाहर जीप में बैठाया गया. होटल के बाहर भीड़ इकट्ठा हो गई थी. ये हम हिंदुस्तानियों की खासियत है कि कितने भी जरूरी काम से निकलें, मुफ्त में मनोरंजन का ये हमारा सनातन माध्यम हमारे कदम थाम लेता है. विशाल गिरफ्तार था. जीप की पिछली सीट पर दो सिपाहियों के बीच सैंडविच बना वो अपनी किस्मत को कोस रहा था. उसे इस बात का ज्यादा अफसोस था कि वो पुलिस के पास जाने वाला था, तो पुलिस पहले उसके पास क्यों पहुंच गई. पिछली सीट पर ही सामने बैठा दिल्ली पुलिस का दरोगा उसे यूं घूर रहा था जैसे बिना मुकदमे-अपील के यहीं फांसी लगा देगा.
क्रमशः

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